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________________ [ २९५ आत्मा को सहज स्वाभाविक शक्तियों को प्रकाश में लाना, यही अहिंसा के आचरण का लक्ष्य है। .. ....... साधारण जन हिंसा के स्थूल रूप को अर्थात् जीव के घात को ही हिंसा समझते हैं, परन्तु ज्ञानी जनों का कथन है कि हिंसा का स्वरूप यहां तक सीमित ..... नहीं है । आत्मिक विशुद्धि का विघात करने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति हिंसा है। इस दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि प्रत्येक पापाचरण हिंसा का ही रूप है। असत्य भाषण करना हिंसा है, अदत्त वस्तु को ग्रहण करना हिंसा है, अवहीचर्य का सेवन हिंसा है और ममता या आसक्ति का भाव भी हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इस तथ्य को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है। वे -: कहते हैं.. आत्मपरिणाम हिंसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । ..... अनृतवचनादि केवल मुदाहृतं शिष्यवोधाय ॥ तात्पर्य यह है कि असत्य भाषण, अदत्तादान आदि सभी पाप वस्तुतः हिंसा रूप ही हैं, क्योंकि उनसे आत्मा के परिणाम का अर्थात् शुद्ध उपयोग का घात होता है। फिर भी असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह को हिंसा से पृथक् जो निर्दिष्ट किया गया है, उसका प्रयोजन केवल शिष्यों को समझाना ही है । साधारण जन भी सरलता से समझ सके, इसी उद्देश्य से हिंसा का.. पृथक्करण किया गया है। . .... .... .. आगे यही प्राचार्य कहते हैं अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसव ! तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। जिनागम का परिमाण बहुत विशाल है और पूरी तरह उसे समझना वहुत कठिन हैं। उसके लिए असीम धैर्य, गहरी लगन और ज्वलन्त पुरुषार्थ चाहिये । किन्तु सम्पूर्ण जिनागम का सार यदि कम से कम शब्दों में समझना हो तो वह यह है- रागादि कषाय भावों को उत्पत्ति होना हिंसा है एवं रागादि का उत्पन्न न होना अहिंसा है ? ८ . F - . . काठनाह। . DATE : its:
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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