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________________ २६३ राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसादजी आदि को वह दिखलाया गया था। वह एक जैनाचार्य की असाधारण प्रतिभा का प्रतीक है। कर्नाटक प्रान्त के एक जैन विद्वान् उसका परिशीलन कर रहे थे । उसके मुद्रण की योजना भी उन्होंने बनाई थी । किन्तु अचानक स्वर्गवास हो जाने के कारण वह योजना अभी तक कार्यान्वित नहीं हो सकी। इस ग्रंथ के लेखक आचार्य का दिमाग कितना उर्वर और ज्ञान कितना व्यापक रहा होगा। यह ग्रन्थ ग्रङ्क लिपि में है । दृष्टिवाद को न जानने वाले श्राचार्य का एक ग्रन्थ जव संसार को चकित कर सकता है. तो दृष्टिवाद के ज्ञाता के ज्ञान की विशालता का क्या कहना है । वास्तव में ज्ञान असीम है, उसकी गरिमा का पार नहीं है । हाँ, तो स्थूलभद्र के मन में यह विचार उत्पन्न हुया कि दर्शनार्थ ग्रा वाली साध्वियों को क्या चमत्कार दिखलाया जाय । ग्राखिर रूप परिवर्तन की विद्या का प्रयोग करके उन्होंने सिंह का रूप धारण कर लिया । साध्वियां मुनिराज के दर्शन के लिए पहुँचीं, मगर मुनिराज के दर्शन नहीं हुए। गुफा के द्वार पर एक सिंह दृष्टिगोचर हुआ । साध्वियां उसे देखकर पीछे हट गई और वापिस लौट कर प्राचार्य भद्रबाहु के समीप पहुँचीं । उन्होंने बतलाया जान पड़ता है मुनिराज स्थूलभद्र कहीं अन्यत्र विहार कर गए हैं। जिस गुफा में वे साधना करते थे वहां तो एक सिंह बैठा दिखाई दिया- 1 आचार्य इस घटना के रहस्य को समझ गए। सोचने लगे- क्या स्थूलभद्र दृष्टिवाद के ज्ञान के पात्र हैं ? उनको दृष्टिवाद का ज्ञान देना उचित है ? जैसे कच्चे घड़े में पानी भरने से घड़ा गल जाता है - विनष्ट हो जाता है और जल की भी हानि होती है, उसी प्रकार अपात्र को ज्ञान देने से उसका श्रीर दूसरों का कल्याण होता है । प्राचीन काल में इस बात का बहुत विचार किया जाता था । आचार्य भद्रबाहु इस विषय में क्या निर्णय करते हैं, यह यथावसर विदित होगा । अगर हम भी पात्रता प्राप्त कर गरिमामय ज्ञान प्राप्त करने की साधना करेंगे तो इहलोक और परलोक में परम कल्याण होगा । •
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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