SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७०] वागरण और अपुट्ट बागरण दोनों का सिलसिला चालू था। शुभ और अशुभ . . कार्यों के विपाक कैसे होते हैं, यह प्ररूपणा चल रही थी। ... . बन्धुत्रो ! शुभ और अशुभ को वास्तविक रूप में समझ लेना बहुत बड़ी बात है । जो अशुभ को समझ लेता है वह अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने. से रुक जाता है। काम, क्रोध आदि के कटुक परियाक यदि समझ में बाजाएं .. तो उनकी ओर जीव का झुकाव ही नहीं हो सकता ! टिमटिमाते प्रकाश में विच्छू को देख कर कोई उसके ऊपर हाथ नहीं रखता, क्योंकि यह बात जानी हुई है कि बिच्छू डंक मारने वाला विषला जन्तु है। उसे पकड़ने और बाहर ले जाकर छोड़ने के लिए चीमटे का उपयोग किया जाता है। ...... पुरस्कार देने पर भी कोई सांप के विल में हाथ नहीं झालेगा, क्योंकि सर्पदंश की भयानकता से सभी परिचित हैं। असत्य भापण करने या अशिष्ट व्यवहार करने से पुरस्कार नहीं मिलता, फिर भी लोग ऐसा करते हैं। इसका एक मात्र प्रधान कारण यही है कि बिच्छू या सर्प के दंश से जैसी प्रत्यक्ष एवं तत्काल हानि होती है, वैसी असत्य भाषण, क्रोध आदि से प्रतीत नहीं होती। साधारण जनों की दृष्टि बहुत सीमित होती है। वे तात्कालिक हानि-लाभ को तो समझ लेते हैं, मगर भविष्य के हानि लाभ की परवाह नहीं करते। दीर्घ दृष्टि की एक नजर वर्तमान पर रहती है तो दूसरी नजर भविष्य पर भी .... रहती है । जिस मनुष्य ने विष के समान पाप को भयजनक समझ लिया है, . . उसकी पाप में प्रवृत्ति नहीं होगी। सत्य यह है कि पापाचरण का परिणाम.. विष से असंख्यगुणित हानिकारक और भयप्रद है। .. . नादान बच्चे को, माता-पिता को आग, बिच्छू, सांप से डराना पड़ता है, बड़े बच्चे को डराना पहीं पड़ता, क्योंकि वह उनसे होने वाले अनर्थ से. परिचित है। इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में पाप-पुण्य को समझ लेने से ज्ञानी पुरुष पाप से स्वयं बचता रहता है । वह उसे जहर से भी ज्यादा संकटजनक . मानता है। पाप; कामना और विषयलोलुपता का जहर भव-भव में शोचनीय...
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy