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________________ २५४ ] भगवान् महावीर ने आनन्द को लक्ष्य करके, उसके व्रतों की निर्मलता के लिए अतिचारों का निरूपण किया। यद्यपि शास्त्रकार का लक्ष्य प्रानन्द श्रावक है किन्तु आनन्द के माध्यम से वे संसार के सभी मुमुक्षुत्रों को प्रेरणा देना चाहते हैं । अतएव वह निरूपण जैसे उस समय अानन्द के लिए हित कर __ था उसी प्रकार अन्य श्रावकों के लिए भी हित कर था और जैसे उस समय हित कर था वैसे ही आज भी हितकर है । शाश्वत सत्य त्रिकाल-प्रवाधित होता है। देश और काल की सीमाएं उसे बदल नहीं सकती। भगवान् ने कहा-सामायिक व्रत के पांच दूषण हैं। साधक इन दूषणों को समीचीन रूप में समझे और इनसे बचता रहे । इनका आचरण न करे। सामायिक तन और मन की साधना है । इस व्रत की आराधना में तन की दृष्टि से इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है और मन की दृष्टि . से उसके उद्वेग एवं चांचल्य का निरोध किया जाता है। मन में नाना प्रकार के जो संकल्प-विकल्प होते रहते हैं, राग की, द्वेष की, मोह की या इसी प्रकार की जो परिस्थति उत्पन्न होती रहती है, उसे रोक देना सामायिक व्रत का लक्ष्य है । समभाव की जागृति हो जाना शान्ति प्राप्ति का मूल मंत्र है । इस संसार में जितने भी दुःख, द्वन्द, क्लेश और कष्ट हैं, वे सभी चित्र के विषय भाव से उत्पन्न होते हैं। उन सब के विनाश का एक मात्र उपाय समभाव है । समभाव वह अमोघ कवच है जो प्राणी को समस्त आघातों से सुरक्षित कर देता है। जो भाग्यवान् समभाव के सुरम्य सरोवर में सदा अवगाहन करता रहता है, उसे संसार का तापापीड़ा नहीं पहुंचा सकता । समभाव वह लोकोत्तर रसायन है जिसके सेवन से समस्त प्रान्तरिक व्याधियां-वैभाविक परिणतियां नष्ट हो जाती हैं। आत्मा रूपी निर्मल गगन में जब समभाव का विभाकर अपनी . . समस्त प्रखरता के साथ उदित होता है तो राग, द्वेष, मोह आदि उलूक विलीन हो जाते है । आत्मा में अपूर्व ज्योति प्रकट हो जाती है और उसके सामने आलोक ही आलोक प्रसारित हो उठता है। . किन्तु अनादि काल से विभाव में रमण करने वाला और विषय भावों
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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