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________________ १६ ] यदि प्रभाव नहीं पड़ता तो समझना चाहिए कि श्रोता ही अपात्र है । वह दूध ही खराब है जो जामन डालने पर भी नहीं जमता । मगर रूपकोशा वासना के विष में पगी हुई भी अपात्र नहीं थी। वाह्य दृष्टि में जो अधम से अधम और पतित से पतित प्रतीत होता है, उसके भीतर भी दिव्यता और भव्यता समाहित हो सकती है। यही कारण है कि ज्ञानी जन उसके प्रति भी घृणा के बदले करुणा का ही भाव रखते हैं और उसकी दिव्यता को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा वे न करते तो . शास्त्रों में घोरतिघोर कुकर्म करने वाले अर्जुन मालाकार और प्रदेशी राजा के जैसे जीवन चरित पढ़ने को हमें कैसे मिलते ? तो कलंदर की तरह मन-मर्कट को इच्छानुसार नचानेवाली रूप कोशा मुनि की वैराग्य रस-परिपूरित वचनावली सुनकर वीतरागता की उपासिका वन गई । मुनिराज स्थूलभद्र उसके गुरु बन गये । 'गु' शब्द अन्धकार का और 'रु' शब्द उसके विनाश का वाचक है। अभिप्राय यह है कि मनुष्य के . अन्तःकरण में व्याप्त सघन अन्धकार को जो विनष्ट कर देता है, जो विवेक । का आलोक फैला देता है, वह 'गुरु' कहलाता है । जीवन-रथ को कुमार्ग से - वचाकर सन्मार्ग पर चलाने के लिए और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए योग्य गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है। रूपकोशा को सुयोग्य गुरु मिल गए और उसका जीवन-रथ विषय-वासना के कीचड़मय एवं ऊबड़-खाबड़ मार्ग से निकल कर साधना के राजमार्ग पर अग्रसर हो चला। उसने वासना के विष को वमन कर दिया और परम-ज्योतिस्वरूप परमात्मा को अपने चिन्तन का लक्ष्य बनाया। साधना के साधारणतया दो रूप देखे जाते हैं--(१) सकाम साधना और (२) निष्काम साधना । सकाम साधना लौकिक लाभ के उद्देश्य से की जाती है, उसमें प्रात्मकल्याण का विचार नहीं होता, अतएव सच्चे अर्थ में वह साधना नहीं कहलाती सकाम साधना के विकृत अतिविकृत रूप अाज हमारे सामने हैं। लोगों ने अपनी-अपनी कामना के अनुकूल साधना की विविध विधियों का अाविष्कार कर लिया है और उसी के अनुसार देव-देवियों की सृष्टि
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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