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________________ झानार्थी पुरुष को (१) अहंकार, (२) क्रोध (३) प्रमाद (४) रोग (५) और आलस्य, इन पांच वातों से बचना ही चाहिए। इनसे बचने पर ही ज्ञान का अभ्यास किया जा सकता है । . जैसे ऊंची जमीन पर पानी नहीं चढ़ता उसी प्रकार अहंकारी को विद्या की प्राप्ति नहीं होती। विद्या प्राप्ति के लिए विनम्रता चाहिए, विनयशीलता होनी चाहिए । इसी प्रकार जो क्रोधशील होता है, चिड़चिड़ा होता है, जिसके हृदय में क्रोध की ज्वालाएं प्रज्वलित रहती हैं, वह भी श्रुत का अभ्यास करने में समर्थ नहीं हो सकता । जो प्रमादी है वह भी ज्ञानार्जन करने में असमर्थ रहता है । प्रमादी व्यक्ति चलते-चलते बहुत समय तक बातें करता रहता है, सोया तो सोता रहेगा, खाने बैठा तो खाया करेगा, शृंगार-सजावट करने में घण्टों बिता देगा। वह कुछ समझेगा, कुछ करेगा। फिजूल की बातों में उपयोगी समय नष्ट करेगा। दूसरों की निन्दा करेगा, विकथा करेगा और अपनी ओर जरा भी लक्ष्य नहीं देगा। - .. आलसी आदमी भी विद्या का अभ्यास नहीं कर सकता। विद्याभ्यास के लिए स्फति आवश्यक है। नियमित कार्य करने की वृत्ति अपेक्षित है । 'आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः अर्थात् आलस्य शरीर के भीतर पैठा हुआ महान् शत्रु है। बाहर के दुश्मन से बचना सरल होता है किन्तु अपने ही अन्दर छिपे बैरी से पार पाना कठिन होता है। प्रालसी मनुष्य उपस्थित कार्य को आगे सरकाने की चेष्टा करता है, कर्तव्य को टालने और उससे बचने का प्रयत्न करता है और यही सोच कर समय नष्ट करता है कि आज नहीं, कल कर लेंगे। कल आने पर परसों का बहाना करता है और आप ही अपने को धोखा देता रहता है। .. इस प्रकार ज्ञानोपार्जन के वाधक कारणों को जान कर उनसे बचना चाहिए. जो उक्त पांचों दोषों से बचे रहते हैं वे ही श्रत की आराधना करने में . . समर्थ होते हैं ! . . . . . . . . . .. ... ... .. .
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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