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________________ २१० ] सामने 'कता है, बादशाह की चापलूसी करता है । मगर जो पूरी तरह निस्पृह बन गया है औौर प्रात्मिक सम्पत्ति से सन्तुष्ट होकर वाह्य वैभव को कंकर पत्थर की तरह समझता है, उसके लिए राजा रंक में कोई भेद नहीं रहता । सच्चे साधु के विषय में भगवान् महावीर कहते हैं जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहां तुच्छस्त कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ | यह है जीता-जागता समभाव | इसे कहते हैं निस्पृहभावना ! साधु जब धर्मदेशना करता है तो अमीर-गरीब का भेद नहीं करता । जैसे राजा को धर्मोपदेश करता है वैसे ही रंक को और जैसे रंक को वैसे ही राजा को । उसकी दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं । जब उस फकीर ने बादशाह के आने की बात सुन करके भी भौंपड़ी का दरवाजा न खोला तो बादशाह ने छिद्र में से देखकर सलाम किया। राजा फकीर को देखकर पहचान गया कि यह तो वही खोजा है । बादशाह बोला- - मियाँ तुम तो गए थे मक्का ! फकीर ने उत्तर दिया- जी हां जब ज्ञान नहीं था पक्का ! फिर बादशाह ने कहा - मियां ! कब से पांव फैलाये ? फकीर ने कहा- जब से हाथ सिकोड़े । बादशाह - क्या कुछ पाया ? फकीर -- जी हां पहले तेरे आता था, अब तू मेरे आया । बादशाह - हमें भी कुछ बता । फकीर - मत करना कोई खता । दानं दे, सान्त्वना दे, भटका मत मार, अन्यथा तेरा सफाया हो जाएगा, कहा है 'यों कर, यों कर यों न कर, यों कीना यों होय । कहे चोलिया देखलो, खुदा न बाहर कोय" ॥
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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