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________________ स्थिति में साधुओं को आहारदान देने की सूझे किसको ? भिक्षु-अतिथि आकर हैरान न करे इस विचार से गृहस्थ अपने घर के द्वार बंद कर लेते थे। शास्त्रोक्त नियमों का पूरी तरह पालन करते हुए भिक्षा प्राप्त कर लेना बहुत कठिन था। 'अन्नाधीनं सकलं कर्म' अर्थात् सभी काम अन्न पर निर्भर हैं, यह उक्ति प्रसिद्ध है । उदर की ज्वाला जब तक शान्त न हो जाय तब तक धर्मकार्य भी यथावत् नहीं होते । स्वाध्याय, आत्मचिन्तन, मनन प्रवचन, धर्म जागरण, आराधन, ज्ञानाभ्यास आदि सत् कार्य अन्न के अधीन हैं? .. .... प्राचीन काल में शास्त्र लिपिवद्ध नहीं किये गये थे । भगवान् के अर्थ रूप प्रवचनों को गणधरों ने शास्त्र में गूटी कर के व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया और अपने शिष्यों को मौखिक रूप में उन्हें सिखाया। जिन्होंने सीखा उन्होंने अपने शिष्यों को भी मौखिक ही सिखाया। इस प्रकार शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा चलती रही। इसी कारण भगवान् का वह उपदेश 'श्रुत' इस नाम से विख्यात हुया.। 'श्रुत' का अर्थ होता है-सुना हुआ। . . . दुर्भिक्ष के समय में श्रत को सीखने-सिखाने की व्यवस्था नहीं रही और अनेक श्र तथर कालकवलित हो गए। इस कारण श्रल का-बहुत-सा भाग स्मृतिपथ से च्युत हो गया । जब दुभिक्ष का अन्त आया और सुभिक्ष हो गया तो संघ एकत्र किया गया। संतों की मण्डली पटना में जमा हुई। आचार्य संभूति विजय के नेतृत्त्व में ग्यारह अंगों तक को व्यवस्थित किया गया। वारहवें अंग दृष्टि-वाद का कोई ज्ञाता उनमें नहीं रहा । विदित हुआ कि उसके ज्ञाता श्री भद्रवाहु हैं जो इस समय यहां उपस्थित नहीं हैं । तब उन्हें बुलाने का उपक्रम किया गया जिससे द्वादशांगी पूर्णरूप में व्यवस्थित हो जाए। इससे आगे का वृत्तान्त यथासमय आप सुन सकेंगे। जो साधक चारित्र की आराधना करता हुआ श्रत की आराधना करता है, उसका इसलोक और परलोक में परम कल्याण होता है । ...... . . . . . . .:
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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