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________________ :} [ १६३ फेंक दिया तो मुनि ने इसे अपना घोर अपमान समझा और रूपाकोषा को फूहड़ समझा । वे सोचने लगो --- कितने परिश्रम से कंवल प्राप्त किया गया था.. और इसकी यह दुर्दशा हुई ! उनके मन का नाग फुफकारने लगा। राह पर पड़ा सर्प यदि जग जाय तो राही को आगे नहीं बढ़ने देता । तपस्वी इसे सहन नहीं कर सके और बोल उठे-रूपाकोशा ? मैंने तेरी चतुराई की अनेक कथाए सुनी थीं। समझता था कि तू विवेकशीला है, व्यवहार कुशल है । किन्तु मेरा सुनना और समझना सब मिथ्या सिद्ध हुआ । कल्पना नहीं की कि तेरे भीतर विवेक का इतना अतिरेक है ! क्या तेरी बुद्धि मारी गई है ! तुझे क्या पता, इस कम्बल के लिए मैंने कितना कष्ट सहन किया है ! कितनी मिहनत और कठिनाई से यह बहुमूल्य और दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है ! मगर तू ने इसका इस प्रकार दुरुपयोग किया ! मैं समझ गया - तेरे पास रूप है, गुण नहीं है। कहा भी है ना चम्पो ना मोगरो, रे भंवरी ! मत भूल । रूप सदा गुरण बाहिरा, रोहीड़ा का फूल ॥ रोहीड़ा की लकड़ी काम में श्राती है पर उसके फूल में सुगन्ध नहीं होती । पलाश का फूल भी ऐसा ही होता है । देखने में बहुत सुन्दर मगर सौरभहीन ! रूपाकोषा के प्रति मुनि के मन में जो ग्राकर्षण था, वह कम हो गया । अनुराग में फीकापन आ गया । उधर रूपाकोषा ने भी समझ लिया — अब उपयुक्त समय आ गया है मुनि को सन्मार्ग पर लाने का | जमीन जत्र खूब तप जाती है और ऊपर से पानी गिरता हैं तब चतुर किसान वीज वपन करता है । उपयुक्त समय पर किया हुआ कार्य सफल होता है और उसके लिए अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता । ग्रनुपयुक्त समय पर कार्य करने से प्रयास वृथा हो जाता है ।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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