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________________ [ १५३ रूपकोषा स्नानागार में जकर जब स्नान करके लौटी तो रत्न कम्बल को उठा कर उससे अपने पैर पौंछने लगी। यह देख कर मुनि के विस्मय की सीमा नहीं रही। और फिर उसने पैर पौंछ कर उसे एक कोने में फेंक दिया। कम्वल की इस दुर्गति को देख कर तपस्वी के भीतर का नाग (क्रोध) जंग उठा! उसे रूपकोषा का यह व्यवहार अत्यन्त ही अयोग्य प्रतीत हुआ। कम्बल के साथ मुनि की आत्मीयता इतनी गहरी हो गई थी कि कम्बल का यह अपमान उन्हें अपना ही घोर अपमान प्रतीत हुयी। .. मुनि सोचने लगे-मैं समझता था कि रूपकोषा बुद्धिमती तथा चतुर है। वह व्यवहार कुशल है। किन्तु ऐसा समझ कर मैंने भयानक भूल की है। अरे ! यह तो फूहड़ है, विवेक विहीन है, असभ्य है । जब उनसे न रहा गया तो बोले- क्या तुम ने नशा किया है या तुम्हारा सिर फिर गया है ! यह टाट का टुकड़ा है या रत्न जटित कम्बल ? क्या समझा है, इसे तुमने ? जिस कम्बल को प्राप्त करने के लिए मैंने लम्बा प्रवास किया, जंगलों की खाक छानी, अनेक संकट सहे और नेपाल नरेश के सामने जाकर दो बार हाथ फैलाये, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया, उस कम्बल की तुम्हारे द्वारा ऐसी दुर्गति की गई ? यह कम्बल का नहीं मेरा अपमान है, मेरी सद्भावना को ठोकर लगाना है ! कृतज्ञता के बदले ऐसी कृतघ्नता ! ..... ......... . .. -रूपकोषा ने समझ लिया कि मुनि के कायाकल्प का यही उपयुक्त अवसर आग का वृत्तान्त यथावसर सुनाया. जायगा। परन्तु जिनवाणी के . अनुसार हमें भी अपना कायाकल्प करना है । जो भव्यजन जिनवाणी का अनुसरण करके अपना जीवनकल्प करेंग., अर्थात् जिनवारणी के अनुकूल व्यवहार बनाए ग वही उभय लोक में कल्याण के भागी होंग। ....
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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