SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६] प्रमुख है जो इस समस्या पर सांगोपांग विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। राजनीतिक वाद आजमाए जा चुके हैं और असफल सिद्ध हुए हैं । हम विश्व के सूत्रधारों को आहवान करना चाहते हैं कि एक बार धार्मिक आधार पर इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया जाय । __न्याय नीति का तकाजा है कि जो सबल है वह निर्बल का सहायक बने, शोषणकर्ता नहीं। इसी आधार पर शान्ति टिक सकती हैं, अन्यथा नहीं। जगत् में अनेक प्रकार के प्राणि हैं । उनमें त्रस अर्थात् जंगम भी हैं और स्थावर भी । भगवान् महावीर ने उन सब के प्रति मैत्री और करुणाभाव धारण करने का उपदेश दिया है। जैसे सन्तति प्रेमी पिता छोटे, बड़े, होशियार, मन्दबुद्धि आदि सभी बच्चों को प्यार करता है, उसी प्रकार विवेकशील साधक के लिए सभी जीव-जन्तु संरक्षणीय हैं। . . . यह सत्य है कि गृहस्थ विविध प्रकार की गार्ह स्थिक आवश्यकताओं से बंधा हुआ है, फिर भी वह सम्पूर्ण नहीं तो आंशिक रूप में हिंसा से विरत हो ही सकता है । निरर्थक हिंसा का त्याग कर देने पर भी उसके किसी. कार्य में बाधा उपस्थित नहीं होती और बहुत-से पाप से बचाव हो सकता है। धीरेधीरे वह पूर्ण त्याग के स्थान पर भी पहुँच सकता है। किन्तु जब तक यह स्थिति नहीं आई है, उसे मंजिल तय करना है। चल और अचल सभी जीवों की रक्षा का लक्ष्य उसके सामने रहना चाहिए। अपूर्ण त्याग से पूर्ण त्याग तक पहुंचना उसका ध्येय होता है । वह कौटुम्बिक व्यवहार में भी कर्तव्यअकर्तव्य का विवेक करके प्रवृत्ति करता है और अपने व्रतों के पालन का ध्यान रखता हैं। __ उसकी आजीविका किस प्रकार की होती है या होनी चाहिए. इसका विवेचन करते हुए तीन कर्मादानों का निरूपण किया जा चुका है। इंगाल कम्मे, वरणकम्मे और साडी कम्मे के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। खर कर्म : होने के कारण श्रावक के लिए ये निषिद्ध हैं ।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy