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________________ ११८ ] उखडे हुए वृक्षों के सिवाय अन्य किसी को काटना उचित नहीं समझते थे। यह उनका व्यावहारिक दृष्टिकोण था । धार्मिक दृष्टिकोण से वृक्षों का छेदन करना इसलिए वर्जित है कि उसके प्रत्येक अंग में हजारों जीव निवास करते हैं । वृक्ष के मूल में पृथक् और फलों-फूलों में पृथक्-पृथक् जीव होता है। जो वृक्ष का उच्छेदन करता है वह एक ऐसे साधन को नष्ट करता है जो हजारों वर्ष विद्यमान रह कर अनेकानेक जीवों का अनेक प्रकार से उपकार कर सकता है । इसके अतिरिक्त वह जीवघात के पाप का भागी भी होता है। अतएव सद्गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह जंगल का ठेका लेकर और वृक्षों को काट कर अपनी आजीविका न चलाए । उदर पूर्ति के अनेक साधन हो सकते हैं जो पापरहित या अल्पतर पाप वाले हों। ऐसी स्थिति में पेट पालने के लिए घोर पाप उपार्जित करना और आत्मा को गुरुकर्मा बनाना विवेकशील पुरुषों के लिये उचित नहीं है। मनुष्य सम्पत्तिशाली बनने के लिए पाप के कार्य करता है मगर यह नहीं सोचता कि ऐसा करके वह आत्मा की अनमोल सम्पत्ति नष्ट कर रहा है । उस सम्पत्ति के अभाव में उसका भविष्य अत्यन्त दयनीय हो जाएगा । अल्यारंभ के कार्यों से ही जब गृहस्थ जीवन का निर्वाह निर्वाध रूप से हो सकता है तो क्यों अनन्त जीवों का घात किया जाय ? पर का घात करना वस्तुतः आत्मघात करना है, क्योंकि पर के घात से आत्मा का अहित होता है । एक मनुष्य किसी जीव का घात करने को उद्यत हो रहा है, कदाचित् उस जीव का घात हो जाय, कदाचित् वह बच भी जाय, मगर घातक तो पाप बन्ध करके अपनी आत्मा का घात कर ही लेता है। उसके चित्त में कषाय का जो उद्रेक होता है, उससे आत्मिक गुणों का विघात होता है और वह विधात ही उसका आत्मविघात कहलाता है। स्मरण रखना चाहिए, कर्म अपना प्ल दिये बिना नहीं रहते। घात का प्रतिघात होता है । आज तुम जिसका छेदन-भेदन करके प्रसन्न होते हो, वही आगे चलकर तुम्हारा छेदन-भेदन करने वाला बन सकता है। चरितानुयोग में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि हिंसक हिंस्य बन गया, छेदक को छेद्य बनना पड़ा और भेदक को भेद्य बनना पड़ा।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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