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________________ 11 आध्यात्मिक आलोक इसमें थोड़ी सी छूट दी गई है । पाश्चात्य संस्कृति में ब्रह्मचर्य पालन-का कोई खास महत्व नहीं है, फिर भी इसकी उपयोगिता और महत्व से वे संब भी अनभिज्ञ नहीं हैं। व्यवहार में स्त्री-पुरुष के समागम को कुशील माना गया है । यद्यपि संसार वृक्ष का मूल होने से गृहस्थ इसका सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता, फिर भी पर स्त्री-विवर्जन और स्व स्त्री समागम को सीमित रखना तो उसके लिये भी आवश्यक है। भारतीय संस्कृति के अनुसार भोग मानव का लक्ष्य नहीं है क्योंकि भोगरत तो अन्य सभी प्राणी हैं, फिर मानव जीवन की विशेषता क्या ? अतः मानवों के लिए त्याग को सुखद कहा गया है। कहा भी है “यतस्त्यागस्ततः सुखम्" । यदि मानव अपनी असीम कामना को ससीम नहीं करेगा तो वह न सिर्फ अपने लिए, बल्कि समाज के लिए भी दुःखद बनेगा । जैसे गिरिश्रृंग से गिरने वाली जलधारा यदि अबाध गति से खुली बहती रहे, तो गांव, घर, खेत-खलिहान आदि सब को भयंकर क्षति पहुँचाएगी । अतः इसका नियन्त्रण करना भी आवश्यक होता है । वैसे ही वासना की धारा को नियन्त्रित करना आवश्यक है। संसार में साधारणतया देखा जाता है कि युवावस्था प्राप्त होते ही स्त्री पुरुष एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर से रहते हैं । इस अवस्था में उन्माद की इतनी अधिकता हो जाती है कि लोग महान से महान् अनर्थ का काम करने पर भी उतारू .. हो जाते हैं । अतः इन सब अनर्थों को रोकने और कामना वृत्ति को ससीम बनाने के लिए भारतीय पूर्वजों ने विवाह सम्बन्ध का नियम बनाया । इसके द्वारा व्यक्ति वासनाओं के बहाव से हट कर अपनी स्त्री में मर्यादित रह सकता है। ___ कामनाओं को समेटना व सीमित करना जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। भगवान महावीर ने कहा है कि मनुष्य यदि कामना नहीं समेटेगा तो शारीरिक और आत्मिक दोनों दृष्टियों से बर्बाद होगा । कुसंग में पड़ा तरूण तन, बल, ज्ञान और आत्मा सभी का नाश करता है । सदाचार मानव जीवन का प्राण है । इसके बिना मानव अहिंसादि किसी भी धर्म-तत्व को नहीं निभा सकता। क्योंकि हरक्षण उसमें मानसिक दुर्बलता बनी रहती है। ब्रह्मचर्य व्रत उत्तेजना के समय मनुष्य को कुवासनाओं पर विजय प्राप्त करा कर धर्म-विमुख होने से बचाता है। ब्रह्मचारी-सदाचारी गृहस्थ अपने जीवन में बुद्धि पूर्वक सीमा बांध कर, अपनी विवेक शक्ति को निरन्तर जागृत रखता है। वह भोग विलास में कीड़े के सदृश तल्लीन नहीं रहता और न समाज में कुप्रवृत्तियों को ही फैलाता है। कामना को सीमित ढंग से शमन कर लेना ही उसका दृष्टिकोण रहता है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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