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________________ [ १४ ] __ जीवन का प्राण सदाचार दुनिया के साधनों में भले ही चंचल चित्त वाला आगे बढ़ सके, किन्तु अध्यात्म मार्ग में उसकी गति तेज नहीं हो सकती । इस संसार में चित्त को चंचल बना देने के सहस्रों साधन हैं, जिन में कामिनी का स्थान सर्वोपरि माना गया है । इसकी दृष्टि में वह जादू है, जो साधक के मन की चंचलता को बढ़ाकर, साधना मार्ग से उसे विचलित कर देती है । मन की चंचलता को दूर करने के लिए, पहले उसका शुद्धिकरण करना होगा । जब मानसिक अशुद्धि दूर हो जाएगी तो स्थिरता सहज प्राप्त हो सकेगी। मन को निर्विकार समाधिस्थ कैसे बनाना, शिष्य की इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है : तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स द्वरा । सज्झाय एगंत-णिसेवणा य, सुत्तत्थ संचितणया घिई य ।। अर्थात्-निर्विकार होने को गुरु तथा वृद्धजनों की सेवा करना, अज्ञानी एवं क्षुद्र प्रकृति के लोगों से दूर रहना, स्वाध्याय और चिन्तन द्वारा एकान्त सेवन करना । इस प्रकार सूत्रार्थ के चिन्तन से मन में धृतिबल प्राप्त हो सकेगा। ___मन की दृढ़ता के लिए दृढ़ संहनन अर्थात् तन दृढ़ होने की भी अपेक्षा रहती है । कहावत भी है कि "स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन बसता है" शारीरिक स्वस्थता के लिए वीर्यबल अपेक्षित है। अतएव भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य की महिमा गाई गई है । आत्म स्वरूप का गान यह वाचिक ब्रह्मचर्य है । शरीर स्पर्श के सिवा चार अन्य भोग, शब्द, रूप, रस, गंध की आसक्ति भी ब्रह्मचर्य में विघातक है। जैसे साधु-जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का नियम है। वैसे गृहस्थ जीवन में भी भारतीय संस्कृति ने ब्रह्मचर्य पालन को आवश्यक माना है किन्तु आवश्यकतावश
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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