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________________ - 58 आध्यात्मिक आलोक प्रामाणिकता से व्यवहार करने पर ग्राहक और व्यापारी दोनों का समय बच जाता है और अनावश्यक झूठ बोलने से भी छुटकारा मिल जाता है। झूठ से जिसका व्यवहार अशुद्ध होगा, तो प्रामाणिकता के अभाव में उसके पूजा-पाठ आदि भी लांछित होंगे । शुभ-कर्म करने वाले पर आक्षेप की अधिक संभावना रहती है । संसार का नियम है कि जो उजला वस्त्र होगा, उसमें दाग जल्दी नजर आता है, किन्तु जो वस्त्र पहले से काला है, उसमें नवीन दाग का कोई असर नहीं पड़ता । ऐसे अनार्य लोगों की अपेक्षा, एक भक्त गृहस्थ का जीवन उजला है। गृहस्थ-धर्म की दृष्टि से उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि मन, वचन और काय से न तो झूठ बोले और न बोलावे । संत का जीवन व्रती गृहस्थ से भी अधिक उजला होता है । उसको सर्वथा झूठ का त्याग है । सर्व-त्यागी भद्रवाह और देश त्यागी यानि स्थूल त्यागी गृहस्थ आनन्द का आदर्श आप सबके सामने है। पाटलिपुत्र के राजा नन्द महामुनि भद्रबाहु के ज्ञानबल तथा आचारबल से बहुत प्रभावित थे। उनके समय में पाटलिपुत्र के लोगों का चरित्र बहुत ऊँचा था। पाटलिपुत्र में नगरी की खुली दुकानों से कोई चोरी के रूप में माल नहीं उठा पाता था । चीनी यात्री ह्वेनसांग, फाहियान आदि, यहां के लोगों के सत्य व्यवहार से बड़े प्रभावित थे । इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने यात्रा-विवरण में यहां के लोगों की प्रशंसा की है। दुर्दैव से एक बार पाटलिपुत्र में बारह वर्षों का लगातार दुर्भिक्ष पडा, क्षुधा की पीड़ा से लोक-जीवन सिहर उठा और उसका प्रभाव संत-जीवन पर भी पड़ा, क्योकि ज्ञान और सदाचार की सुरक्षा के लिए शरीर रक्षा आवश्यक है, शरीरधारणार्थ संतो को शुद्ध आहार, वहीं मिल सकता है, जहां लोगों में स्वस्थ मन और कुछ उत्सर्ग करने की शक्ति हो । पाटलिपुत्र तो अकाल की चपेट में कंगाल बन गया था। अतएव भद्रबाहु वहां से उत्तर की ओर निकल पड़े और पक्षी की भांति अपना घोंसला बदल दिया । भद्रबाहु ने देश के कोने-कोने में धर्म का सन्देश फैलाया और साथ ही आत्म-साधना का तेज भी चमकाया । आज लोगों का चरित्र बल इतना अधिक क्षीण हो गया है कि संतों को भी समय-समय पर सामान्य नैतिक जीवन तक की शिक्षा देनी पड़ती है । इस के लिए आज संतों का उपदेश ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हर गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह अपनी जीविका संचालन में सत्य-अहिंसा आदि का भी पालन करे तथा दूसरों को भी उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा करे। साधना-पथ पर स्वयं चलते और दूसरों को
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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