SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 563 आध्यात्मिक आलोक अन्तिम समय की साधना में तत्पर हो गया । युद्ध करते समय भी, शत्रुओं पर गाढ़ा प्रहार करते समय भी हिंसा में रक्षानुभूति उसे नहीं हो रही थी । गीता में जिसे निष्काम कर्म कहा गया है, वही कर्म वह दत्तचित्त होकर प्रामाणिकतापूर्वक कर रहा था । अन्त में वर्णनाग समस्थिति में आकर स्वर्गवासी हुआ | उसकी स्वर्गप्राप्ति का कारण था-विषम स्थिति से समस्थिति में आना, आर्त-रौद्र भाव त्यागना और विषय-कषायों से विमुख होकर शान्तचित्त होना । सामायिक साधना का प्रथम सोपान सम्यक्त्व सामायिक है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही श्रुत के वास्तविक मर्म को समझा जा सकता है । अतएव श्रुत सामायिक को दूसरा सोपान कहना चाहिए । श्रुत सामायिक प्राप्त कर लेने पर चारित्र सामायिक को प्राप्त करना आसान होता है । चारित्र सामायिक श्रुत सामायिक के बिना स्थिर नहीं रह सकती । श्रुत सामायिक के द्वारा साधक को एक ऐसा बल मिलता है जिसके कारण देव और दानव भी उसका अहित नहीं कर सकते । आनन्द, कामदेव, कुण्ड कोलिक आदि गृहस्थ साधक सामायिक साधना के बल पर ही अमर हो गये हैं। ___ भगवान महावीर स्वामी ने श्रमणों को सम्बोधित करते हुए कहा कि कामदेव के समान साधना करो । देव ने हाथी, सर्प आदि का विकराल रूप धारण करके कामदेव को धर्म से च्युत करने में कुछ उठा नहीं रखा, किन्तु उसकी एक न चली । कामदेव अपनी साधना में अडिग रहा । जिसके जीवन में साधना नहीं होती, वह थोड़े-से विक्षेप से भी चलायमान, उद्विग्न और अधीर हो जाता है, चुटकी से भी विचलित हो जाता है किन्तु आज साधना के शुद्ध स्वरूप को दुर्लक्ष्य किया जा रहा सामायिक-साधना वह शक्ति है जो व्यक्ति में नहीं, समाज और देश में भी बिजली पैदा कर सकती है । व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में यह.साधना आनी चाहिए जिससे उसका व्यापक प्रभाव अनुभव किया जा सके । प्राचीन भारतीय विद्वानों में एक चीज की कमी रही जो आज भी खटकती है । उन्होंने पृथक-पृथक रूप से जो अनुभव और चिन्तन किया, उसका संकलन करके उसे एक संगठित रूप प्रदान नहीं किया। इसके अभाव में उसके आगे की कड़ी के रूप में चिन्तन अबाध गति से चालू नहीं रह सका । उसकी श्रृंखला बीच में टूट गई । उनके महत्त्वपूर्ण प्रयास बिखरे-विखरे रहे । उनका मेल मिलाने का कोई प्रयास नहीं किया गया । पश्चिम में इसी प्रकार का प्रयास दृष्टिगोचर होता है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy