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________________ 546 आध्यात्मिक आलोक के कारण उन्मत्त न बनता और दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त न होता तो उसे सर्वनाश की घड़ी देखने को न मिलती । जन, धन, सत्ता, शस्त्र, विज्ञान, बल आदि अनेक कारणों से मनुष्य को उन्माद पैदा होता है । यह उन्माद ही मनुष्य से अनर्थ करवाता है । वह अपने को प्राप्त सामग्री से दूसरों को दुःख में डालता है। उनके सुख में विक्षेप उपस्थित करता है । उसे पता नहीं होता कि दूसरों को दुःख में डालना ही अपने को दुःख में डालना है और दूसरे के सुख में बाधा पहुँचाना अपने ही सुख में बाधा पहुँचाना है । सुख में बेभान होकर वह नहीं सोच पाता कि ऐसा कार्य उसके लिए, मानवसमाज, देश एवं विश्व के लिए हितकारी है अथवा अहितकारी? इतिहास में सैंकड़ों घटनाएं घटित हुई हैं जबकि शासकों ने उन्मत्त होकर दूसरों पर आक्रमण किया है, यहां तक कि अपने मित्र, बन्धु और पिता पर भी आक्रमण करने में संकोच नहीं किया । महाभारत युद्ध क्या था ? भाई का भाई के प्रति अन्याय करने का एक सर्वनाशी प्रयत्न । श्रीकृष्ण जैसे पुरुषोत्तम शान्ति का मार्ग निकालने को उद्यत होते हैं, महाविनाश की घड़ी को टालने का प्रयत्न करते हैं, भारत को प्रचण्ड प्रलय की घोर ज्वालाओं से बचाने के लिए कुछ उठा नहीं रखते, किन्तु उनके प्रयत्नों को ठुकरा दिया जाता है | कौरव वैभव के नशे में बेभान न हो गए होते, उनकी मति यदि सन्तुलित रहती तो क्या वह दृश्य सामने आता कि भाई को भाई के प्राणों का अन्त करना पड़े और शिष्य को अपने कलाचार्य पर प्राणहारी आक्रमण करना पड़े? मगर शक्ति के उन्माद में मनुष्य पागल हो गया और उसने अपने ही सर्वनाश को आमंत्रित किया ! नीतिकार ने ठीक ही कहा है . विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां परिपीडनाय । . . । खलस्य साधोर्विपरीतमेतद, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।। किसी दुष्ट जन को विद्या प्राप्त हो जाती है तो उसकी जीभ में खुजली चलने लगती है । वह विवाद करने के लिए उद्यत होता है और दूसरों को नीचा दिखला कर अपनी विद्वत्ता की महत्ता स्थापित करने की चेष्टा करता है । वह समझता है कि दुनिया की समग्र विद्वत्ता मेरे भीतर ही समाई हुई है। मेरे सामने सब तुच्छ है, मैं सर्वज्ञ का पुत्र हूँ ! किन्तु ऐसा अहंकारी व्यक्ति दयनीय है, क्योंकि वह अपने अज्ञान को ही नहीं जानता। जो सारी दुनिया को जानने का दंभ करता है, वह यदि अपने आपको ही नहीं जानता तो उससे अधिक दया का पात्र अन्य कौन हो सकता है ? सत्पुरुष विद्या का अभिमान नहीं करता और न दूसरों को नीचा दिखा कर अपना बड़प्पन जताना चाहता है । खल (दुष्ट ) जन के पास लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से यदि धन की प्रचुरता हो जाती है तो वह मद में मस्त हो जाता है और धन के बल से कुकर्म
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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