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________________ [८०] राष्ट्रीय संकट और प्रजाजन संस्कृत भाषा में एक उक्ति प्रसिद्ध है-'चक्रवत्परिवर्तन्ते दुःखानि सुखानि च। अर्थात् दुःख और सुख चक्र की तरह बदलते रहते हैं । संसारी जीव का जीवन दो चक्रों पर चलता है, कभी दुख और कभी सुख की प्रबलता होती है । प्रत्येक प्राणी के लिये यह स्थिति अनिवार्य है, क्योंकि कर्म संक्षेप में दो प्रकार के हैं-शुभ और अशुभ । शुभ कर्म का परिणाम सुख और अशुभ कर्म का परिणाम दुःख होता है । जिस जीव ने जिस प्रकार के कर्मों का बन्ध किया है, उसे उसी प्रकार का फल भोगना पड़ता है । कर्म के बन्ध और उदय का यह गोरखधंधा अनादि काल से चल रहा है। पूर्वबद्ध कर्मों का जब उदय होता है तो जीव उनके उदय के कारण राग-द्वेष करता है और राग-द्वेष के कारण पुनः नवीन कर्मों का बन्ध कर लेता है। इस प्रकार बीज और वृक्ष की अनादि परम्परा के समान रागादि विभाव परिणति और कर्मबन्ध का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । अज्ञानी जीव इस तथ्य को न जानकर कर्मप्रवाह में बहता रहता है। मगर ज्ञानी जनों की स्थिति कुछ भिन्न प्रकार की होती है । वे शुभ कर्म का उदय होने पर जब अनुकूल सामग्री की प्राप्ति होती है तब हर्ष नहीं मानते और अशुभ कर्म का उदय होने पर दुःख से विह्वल नहीं होते । दोनों अवस्थाओं में उनका समभाव अखण्डित रहता है । पूर्वोपार्जित कर्म को समभाव से भोग कर अथवा तपश्चर्या करके नष्ट करना और नवीन कर्मबन्ध से बचना ज्ञानी पुरुषों का काम है। जब मनुष्य सुख की घड़ियों में मस्त होकर आसमान में उड़ने लगता है, नीति अनीति और पाप-पुण्य को भूल जाता है और भविष्य को विस्मृत कर देता है तब वह अपने लिये दुःख के बीज बोता है । रावण यदि प्राप्त विभूति एवं सम्पदा
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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