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________________ [७६] जीवनसुधार से ही मरणसुधार आत्मा अजर, अमर, अविनाशी द्रव्य है । न इसकी आदि है, न अन्त । न जन्म है, न मृत्यु है । किन्तु जब तक इसने अपने निज रूप को उपलब्ध नहीं किया है और जब तक इसके साथ पौद्गलिक शरीर का संयोग है, तब तक शरीर के संयोग-वियोग के कारण आत्मा का जन्म-मरण कहा जाता है । वर्तमान स्थूल शरीर से वियोग होना मरण और नूतन स्थूल शरीर को ग्रहण करना जन्म कहलाता है । जन्म से लेकर मरण तक का रूप जीवन है । इस प्रकार जन्म, जीवन और मरण, ये तीन स्थितियां प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ लगी हुई हैं।। आत्मा के जो निज गुण हैं, उनका विकास आत्मसुधार कहलाता है । आत्मसुधार का प्रथम सोपान जीवनसुधार है । जीवनसुधार का तात्पर्य है जीवन को निर्मल बनाना । जीवन में निर्मलता सदगुणों और सद्भावनाओं से उत्पन्न होती है। . जीवनसुधार से मरणसुधार होता है । जिसने अपने जीवन को दिव्य और भव्य रूप में व्यतीत किया है, जिसका जीवन निष्कलंक रहा है और विरोधी लोग भी जिसके जीवन के विषय में उंगली नहीं उठा सकते, वास्तव में उसका जीवन प्रशस्त है । जिसने अपने को ही नहीं, अपने पड़ोसियों को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र को और समग्र विश्व को ऊंचा उठाने का निरन्तर प्रयत्न किया, किसी को कष्ट नहीं दिया मगर कष्ट से उबारने का ही प्रयत्न किया, जिसने अपने सद्विचारों एवं सदआचार से जगत् के समक्ष स्पृहणीय आदर्श उपस्थित किया, उसने अपने जीवन को फलवान बनाया है। इस प्रकार जो अपने जीवन को सुधारता है, वह अपनी मृत्यु को भी सुधारने में समर्थ बनता है, जिसका जीवन आदर्श होता है, उसका मरण भी आदर्श होता है। कई लोग समझते हैं कि अन्तिम जीवन को संवार लेने से हमारा मरण संवर जाएगा, मगर स्मरण रखना चाहिए कि जीवन के संस्कार मरण के समय उभर कर
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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