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________________ आध्यात्मिक आलोक 499 आचार्य भद्रबाहु स्वामी चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे । महामुनि स्थूलभद्र उनके शिष्य बने । किन्तु उनकी एक स्खलना ने ज्ञानार्जन में गतिरोध उत्पन्न कर दिया । दस पूर्वो के अभ्यास को वे समाप्त कर चुके थे । वाचना का नियत समय हुआ । प्रतिदिन की भाँति स्थूलभद्र मुनि गुरु के चरणों में उपस्थित हुए। किन्तु आचार्य महाराज ने कहा-"वाचना पूर्ण हो गई, अब मनन करो।" आचार्य का यह कथन सुनकर स्थूलभद्र चौंक उठे । उन्होंने देखा-"आज आचार्य का मन बदला हुआ है । उनके मुख पर नित्य की सी वात्सल्य की छाया दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। आज आचार्य अनमने हैं।" ___ स्थूलभद्र विचार में पड़ गए | क्या कारण है कि आचार्य ने बीच में ही वाचना प्रदान करना रोक दिया । अभी तो चार पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करना शेष है। किन्तु उन्हें अपनी भूल समझने में देरी न लगी । वे अपने प्रमाद को स्मरण करके चौंक उठे । साध्वियों को चमत्कार दिखलाना ही इसका कारण है, यह उन्हें स्पष्ट प्रतीत होने लगा । मगर अब क्या ? जो तीर हाथ से छूट गया, वह क्या वापिस हाथ आने वाला है ? स्थूलभद्र बड़े ही असमंजस में पड़े थे । उन्होंने लज्जित होते हुए, हाथ जोड़कर आचार्य से निवेदन किया-"देव, भूल हो गई है किन्तु भविष्य में पुनः उसकी आवृत्ति नहीं होगी । अपराध क्षमा करें मुझे इसका दंड दें और यदि उचित प्रतीत हो तो आगे की वाचना चालू रखें । आचार्य संभूति विजय ने मुझे आपका शिष्यत्व स्वीकार करने का आदेश दिया था । उनकी दिवंगत आत्मा को वाचना पूर्ण होने से सन्तोष प्राप्त होगा ।" स्थूलभद्र यद्यपि थोड़ी देर के लिए प्रमाद के अधीन हो गए थे तथापि सावधान साधक थे । उन्होंने आत्मालोचन किया और अपने ही दोष पर उनकी दृष्टि गई । सच्चे साधक का यही लक्षण है । वह अपने दोष के लिए दूसरे को उत्तरदायी नहीं ठहराता । अपनी भूल दूसरे के गले नहीं मढ़ता । उसका अन्तःकरण इतना ऋजु एवं निश्शल्य होता है कि कृत अपराध को छिपाने का विचार भी उसके मन में नहीं आता। पैर में चुभे काटे और फोड़े में पैदा हुए मवाद के बाहर निकलने पर ही जैसे शान्ति प्राप्त होती है उसी प्रकार सच्चा साधक अपने दोष का आलोचन और प्रतिक्रमण करके ही शान्ति का अनुभव करता है । इसके विपरीत जो प्रायश्चित्त के भय से अथवा लोकापवाद के भय से अपने दुष्कृत को दवाने का प्रयत्न करता है, वह जिनागम का साधक नहीं, विराधक है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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