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________________ 493 - - - आध्यात्मिक आलोक पति, पुत्र, पुत्री, जामाता आदि के आने का कारण निश्चित होता है । प्रायः ये पर्व आदि के समय आते हैं, किन्तु त्यागी महात्माओं के आने की कोई तिथि नियत नहीं होती, अतएव उन्हें अतिथि कहा गया है । जिसने संसार के समस्त पदार्थों की ममता तज दी है, जो सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह से विमुक्त हो चुका है और संयममय जीवन यापन करता है, वह अतिथि कहलाता है । कहा भी है हिरण्ये वा सुवर्णे वा, धने धान्ये तथैव च । अतिथिं तं विजानीयाद्यस्य लोभो न विद्यते ।। सत्यार्जवदयायुक्तं, पापारम्भविवर्जितम्। उग्रतपस्समायुक्तमतिथिं विद्धि तादृशम् ।। अर्थात् हिरण्य (चांदी), स्वर्ण, धन और धान्य आदि पदार्थों में जिसकी ममता नहीं है, जो जागतिक वस्तुओं के प्रलोभन से ऊपर उठ गया है, वह अतिथि है । जिसके जीवन में सत्य, सरलता और दया घुल-मिल गए हैं, जिसने समस्त पापमय व्यापारों का त्याग कर दिया है और जो तीव्र तपश्चर्या करके आत्मा को निर्मल बनाने में संलग्न है, वही अतिथि कहलाने के योग्य है । - अपने निमित्त खाने और पहनने आदि के लिए जो सामग्री जुटाई हो उसमें से कुछ भाग अतिथि को अर्पित करना संविभाग कहलाता है । सहज रूप में अपने लिए बनाये या रखे हुए पदार्थों के अतिरिक्त त्यागियों के उद्देश्य से ही कोई वस्तु तैयार करना, खरीदना या रख छोड़ना उचित नहीं। कई लोग यह सोचते हैं कि जैसा देंगे वैसा पाएगे; किन्तु यह दृष्टि भी ठीक नहीं है । भुने चने देने से चने ही मिलेंगे और हलुआ देने से हलुआ ही मिलेगा, यह धारणा भ्रमपूर्ण है। दान में देय वस्तु के कारण ही विशेषता नहीं आती। वाचक उमास्वाति तत्वार्थसूत्र में कहते हैं विद्रव्य दातृपात्रविशेष न तद्विशेषः दान के फल में जो विशेषता आती हैं, उसके चार कारण हैं: ( विधि (२) देय द्रव्य ) दाता की भावना और () लेने वाला पात्र । जहा ये चारों उत्कृष्ट होते हैं, वहां दान का फल भी उत्कृष्ट होता है । किन्तु इन चारों कारणों में भी दाता की भावना ही सर्वोपरि है । अगर दाता निर्धन होने क कारण सरस एवं बहुमूल्य भोजन नहीं दे सकता, किन्तु उत्कृष्ट भक्ति-भावना के साथ निष्काम भाव से सादा भोजन भी देता है तो निस्सन्देह वह उत्तम फल का
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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