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________________ आध्यात्मिक आलोक 39 जीवन निर्माण की दिशा में मात्र सत्पुरुषों के गुणगान से ही आत्मा लाभ प्राप्त नहीं कर पाता, इसके लिए करणी की भी आवश्यकता है और गुणीजनों को भी केवल अपनी प्रशंसा भर से वह प्रमोद नहीं प्राप्त होता, जो कि उनकी कथनी को करनी का रूप देने से होता है । समझिए किसी दुकानदार के पास ऐसा ग्राहक आवे जो सभी वस्तुओं को अच्छी तो बतावे पर कुछ भी खरीद नही करे तो क्या दुकानदार लाभ समझेगा ? ऐसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऐसे भक्त जो उपदेशों की बहुत प्रशंसा करें किन्तु ग्रहण कुछ न करें तो उनका कोई भी महत्व नहीं है। जैसे जीवन निर्वाह के लिए हर एक व्यक्ति कुछ न कुछ धन्धा करता है और उसमें यथा योग्य सफलता भी पा लेता है, वैसें आत्मबल की वृद्धि के लिए भी प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ करना चाहिए । मन, वाणी और काया की साधना करने से सहज ही आत्मा की शक्ति बढ़ेगी, यश प्राप्त होगा और समाज में सम्मान और सुख मिलेगा। संसार में दूसरे की अच्छाई, कीर्ति और भौतिक उन्नति देखकर ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है। यह एक मानसिक दोष है और यदि इसका निराकरण करने के लिए मन पर नियंत्रण करें तो आत्मिक बल बढ़ सकता है । असद विचारों को रोक कर कुशल मन की प्रवृत्ति करना यह मन का धर्म है । असत्य, कटुक और अहितकारी वाणी न बोलना यह वाणी की साधना है । वाणी का यदि इस तरह दुरुपयोग रोक कर भगवद्-भक्ति की जाय तो इससे भी आत्मिक लाभ होगा । मन और वाणी की साधना के समान तन की साधना भी महत्वपूर्ण है । तन को हिंसा, कुशील आदि दुर्व्यवहारों से हटाकर, सेवा, सत्संग और व्रत आदि में लगाना, कायिक साधना है। ये सभी साधनाएं साधक को ऊपर उठाने में सहायक होती हैं । गरीब मनुष्य भी इस प्रकार मन, वचन, और काया के तीन साधनों से धर्म कर सकता है। साधना की सामान्यतः तीन कोटियां हैं १. समझ को सुधारना-साधक का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह धर्म को अधर्म तथा सत्य को असत्य न माने । भगवान की भक्ति करे । देव, अदेव और संत असंत को पहचानना भी साधकों के लिए आवश्यक है। . शास्त्र में देवों के पांच भेद किए हैं - १. द्रव्यदेव, २. नरदेव,३. धर्मदेव, ४. भावदेव, और ५. देवाधिदेव । ज्ञान का आदान-प्रदान करने एवं सदाचरण के कारण ब्राह्मणों को भी भूदेव कहा गया है । चक्री राजाओं को नरदेव तथा संतों को धर्मदव कहा है । भावदेव चार प्रकार के हैं। देवगति में जाने वाला द्रव्यदेव है। इस सब में साधक के लिए केवल वीतराग देवाधिदेव ही वंदनीय है । अतः किसी
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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