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________________ 453 आध्यात्मिक आलोक वीतरागता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन अर्हन्तों ने प्रकट किया है कि जब तक सामायिक का साक्षात्कार नहीं किया जाता जब तक सामायिक साधना कई बार आती है और चली भी जाती है, चाहे साधक श्रमणोपासक हो अथवा श्रमण हो । (२) कायदुप्पणिहाणे-सामायिक का तीसरा दूषण शरीर का दुष्प्रणिधान है। शरीर के अंग-प्रत्यंग की चेष्टा सामायिक में बाधक न हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि इन्द्रियों एवं शरीर द्वारा अयतना का व्यवहार न हो । सामायिक की निर्दोष साधना के लिए यह अपेक्षित है । इधर-उधर घूमना, बिना देखे चलना, पैरों को घुमाते हुए चलना, रात्रि में बिना पूंजे चलना बिना देखे हाथ-पैर फैलाना आदि काय के दुष्प्रणिधान के अन्तर्गत हैं । मन, वचन और काय का दुष्प्रणिधान होने पर सामायिक का वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं होता। किसी गांव में एक बुढ़िया थी । पुत्र आदि परिवार के होने पर भी स्नेहवशात बेचारी रात-दिन घर गृहस्थी के कार्य में पचती रहती थी। सौभाग्य से उस गांव में एक महात्मा जा पहुँचे । बुढ़िया के पुत्र बहुत शिष्ट और साधु-सेवी थे । वे महात्मा की सेवा में पहुँच कर और बहुत आग्रह करके उन्हें अपने घर लाए । महात्मा से निवेदन किया-"महाराज ! हमारी माता वृद्धावस्था में भी कोई धर्मकृत्य नहीं करतीं । उन्हें यदि कुछ प्रेरणा करें और नियम दिला दें तो उनका कल्याण होगा ।" ___ महात्मा ने उत्तर दिया-जैसा अवसर होगा, देखा जाएगा । पर सन्त-महात्मा परोपकार परायण होते हैं । वे आत्म-कल्याण के साथ पर-कल्याण को भी अपने जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं । बल्कि यों कहना चाहिए कि परोपकार को भी वे आत्मोपकार का ही एक अंग समझते हैं । अतएव महात्मा भिक्षा के अवसर पर उनके घर पहुँचे । लड़के भिक्षा देने लगे तो वृद्धा ने कहा-"आज तो मुझे भी लाभ लेने दो।" लड़के एक ओर हो गए और वृद्धा महात्मा को आहार दान देने लगी। महात्मा ने उससे कहा-"बाई ! तुम्हारे हाथ से हम तभी भिक्षा ग्रहण करेंगे जब कुछ धार्मिक नियम ग्रहण करोगी।" बुढ़िया नहीं चाहती थी कि महात्मा उसके द्वार पर पधार कर खाली लौटें, अतएव उसने प्रतिदिन एक सामायिक करने का नियम ले लिया । महात्मा उसके हाथ से भिक्षा लेकर अपने स्थान पर चले गए। वृद्धा प्रतिदिन समय-असमय घड़ी भर साधना कर लेती थी । एक दिन भोजन से निवृत्त हो जाने के पश्चात् उसकी बहुएँ गाँव में इधर-उधर मिलने चली
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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