SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 420 __ आध्यात्मिक आलोक इसी प्रकार हिंसक जन्तुओं का पालन करके उनसे जीव-वध करवा कर आजीविका चलाना भी अत्यन्त क्रूरतापूर्ण एवं निन्दनीय कर्म है। शिकारी वाज, कुत्ते आदि का पालन ऐसे ही पापकर्म के लिए किया जाता है। जो लोग घोर अज्ञानान्धकार में निमग्न हैं, जिन्हें धर्म और नीति का प्रकाश नहीं मिला है, जिन्हें संतसमागम का सुयोग भी प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे लोग यदि घोर कर्मबंधकारक ऐसे कर्म करें तो कदाचित् क्षम्य है, किन्तु सद्गृहस्थ इन कुकृत्यों में कैसे प्रवृत्त हो सकता है? कई लोग 'असतिजनपोषण में थोडा-सा फेरफार करके 'असंजतीजनपोषण कर देते हैं और कहते हैं कि संयमी जनों अर्थात् साधुओं के अतिरिक्त किसी भी भूखे को रोटी देना पाप है । मगर यह व्याख्या प्रमाद या पक्षपात से प्रेरित है। यह साम्प्रदायिक आग्रह का परिणाम है । इस प्रकार की व्याख्या करने से दया, अनुकम्पा और करुणा भी पाप हो जाएगी । यह अर्थ दया-दान प्रधान जैन परम्परा से विपरीत है। पालतू कुत्ते को खाना देना पाप नहीं है । यहां हिंसा द्वारा कमाई करने की वृत्ति नहीं है । भूखे कुत्ते को या अन्य पीड़ित जीवों को अन्न आदि देना अनुकम्पा की प्रेरणा है । क्षुधा, पिपासा, अशान्ति और आर्ति मिटाने में जो अनुकम्पा की भावना होती है, वह पुण्य है। उसे कर्मादान में सम्मिलित नहीं समझना चाहिए । कर्मादानों का सम्बन्ध विशिष्ट पापकर्मों के साथ है। श्रुत का गंभीर और सम्यग्दृष्टिपूर्वक अध्ययन किया जाय तो इस प्रकार की गलतफहमी नहीं हो सकती । श्रुत हमारे लिए मार्गदर्शक हैं । उसी से कृत्य-अकृत्य का भेद ज्ञात होता है। अगर श्रुत रूपी निधि हमारे पास न होती तो इसके आधार के बिना हम हेय-उपादेय का विवेक कैसे करते ? जैसे नेत्रहीन पुरुष को वीहड़ वन में मार्ग नहीं मिलता और वह इधर-उधर ठोकरें खाता और टकराता है, वही दशा श्रुत ज्ञान के अभाव में हमारी होती । आध्यात्मिक जीवन को आलोकित करने वाले शास्त्र ही हैं । शास्त्र से आन्तरिक प्रकाश प्राप्त होता है । इसी कारण श्रुत का संरक्षण महत्वपूर्ण कर्त्तव्य माना गया है । . आचार्य संभूतिविजय ने शास्त्ररक्षा के कार्य को महान् और शासन के अभ्युदय के लिए उसे अनिवार्य मान कर उसके संरक्षण की योजना की । जब बारहवें अंग दृष्टिवाद का प्रश्न उपस्थित हुआ तो भद्रबाहु स्वामी की ओर ध्यान गया। दूसरी बार फिर उनकी सेवा में मुनियों को भेजा गया । उन्होंने संघ का सन्देश उन्हें कह सुनाया । संघ ने इस बार मार्मिक शब्दों में सन्देश प्रेषित किया और भद्रबाहु से पुछवाया कि संघ बड़ा है या ध्यान बड़ा है ?
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy