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________________ [६३] कर्मादान के रूप वीतराग प्रभु ने संसार के जोदों.को कल्याण का सर्वोत्तम मार्ग बतलाया है। वह मार्ग ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप है । वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप में समझना, उस पर पूर्ण आस्था करना और फिर उसके अनुसार आचरण करना-चही आत्मशुद्धि का सही मार्ग है। कई लोग अकेले ज्ञान से ही नियस की प्राप्ति होने की कल्पमा करते हैं। उनका कथन है कि तत्व के ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, आचरण को कोई आवश्यकता नहीं । किन्तु यह मान्यता अत्यन्त भ्रमपूर्ण है और हमारा दैनिक अनुभव भी इसका विरोधी है । ज्ञान मात्र से किसी भी कार्य में चाहे वह लौकिक हो या लोकोत्तर सफलता प्राप्त होती नहीं देखी जाती । औषध के. ज्ञान मात्र से रोग का अन्त नहीं आता । भोजन देख लेने से भूख नहीं मिटती और किसी यन्त्र को बनाने के ज्ञान मात्र से यन्त्र नहीं बन सकता । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि शुद्ध आत्मस्वरूप के ज्ञान मात्र से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ।। हेय और उपादेय का ज्ञान आवश्यक है किन्तु उस ज्ञान को क्रियान्वित करने की भी अनिवार्य आवश्यकता है। हेय जिसे समझा, उसका त्याग करना चाहिए और उपादेव का उपादान अर्थात ग्रहण करना चाहिए । यही ज्ञान को सार्थकता है । जान लिया किन्तु तदनुसार आचरण नहीं किया तो ज्ञान निरर्थक है। कहा भी है ज्ञानं भारः क्रियां विना । आचारविहीन ज्ञान भारभूत है । उससे कोई लाभ नहीं होता । सर्प को सामने आता जान कर भी जो उससे बचने का प्रयत्न नहीं करता है, उसका जानना किस काम का ? ज्ञानी पुरुषों का कथन तो यह है कि जिस ज्ञान के फलस्वरूप आचरण न बन सके, वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान हो नहीं है । सच्या ज्ञान व्हो है
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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