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________________ आध्यात्मिक आलोक पापप्रभावाद भवेदरीद्रो, दरिद्रभावाच्च करोति पापं। पापप्रभावान्नरकं प्रयाति, पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ।। अर्थात् पाप के उदय से जीव दरिद्र होता है और दरिद्रता में दुर्मतिवश चोरी, हत्या, मांस भक्षण आदि फिर पाप करता है जिससे नरक में चला जाता है, फिर दरिद्र और फिर पापी इस प्रकार दीर्घकाल तक कर्म परम्परा में भटकता रहता है। _ अक्सर देखा जाता है कि पूर्व जन्म के पाप तो भोग रहा है और फिर मनुष्य नये-नये पाप कर्मों में प्रवृत्त रहता है । इस स्थिति में भला उसके अच्छे दिन कैसे आएगे ? बुरे कर्मों से उपार्जित वैभव भी शान्ति-दायक नहीं होता, वह कोई न कोई अशांति खड़ी कर देता है और चंचल चमक सम अनायास नष्ट भी हो जाता आप देखते हैं, पैसे के लिए भाई-भाई, बाप-बेटा और पति-पत्नि तक में भयंकर झगड़े होकर पारिवारिक जीवन दुःखद बन जाता है। हिंसा, झुठ और परिग्रह के चलते परम-शान्त और सुखद जीवन भी अशान्त बन जाता है और देवों से स्पर्धा करने वाला भी मानव, दानव और पशु तुल्य हो जाता है । मनुष्य जीवन जो सकल अभ्युदयों की जड़ है, उसको व्यर्थ में गंवाना बुद्धिमानी का कार्य नहीं माना जा सकता । जिस प्रकार वृक्ष अपने स्वभाव और गुण-धर्म को नहीं छोड़ते तथा अपकारी का भी उपकार करते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को भी मानवोचित महान गुण और धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए । मन से दुख के कारणों को दूर किए बिना वास्तविक सुख की प्राप्ति असंभव है । लड़ाई, हिंसा या कलह से प्राप्त सम्पदा, स्वयं और परिवार किसी के लिए भी कल्याणप्रद नहीं हो सकती। . आज हजारों लोग दोनों समय भोजन नहीं पाते और सर्दी एवं घाम में छटपटाकर पशुवत् जीवन व्यतीत करते हैं, आप अपनी सुख-सुविधा में उन्हें भूल जाते है । लेनदेन के पैसे लेना तो नहीं भूलते, किन्तु उनके जीवन सुधार पर ध्यान नहीं देत क्योंकि वैसा करने में थोड़ा लोभ घटाना पड़ता है। जो लोग अज्ञानतावश मच्छी बेचते, शिकार करते और पशु बेचकर आपको पैसा चुकाते हैं, आप लोग उनको सान्त्वना देते हुए पाप की बुराई समझावें और कुछ सहानुभूति रखें तो उनका जीवन सुधर सकता है, हिंसा घट सकती और थोड़े त्याग में अधिक लाभ हो सकता है । सम्पन्न लोगों को इस ओर ध्यान देना चाहिए । ___ आज संसार में सर्वत्र मन की संकीर्णता और स्वार्थपरता ही दृष्टिगोचर होती है । और की तो बात ही क्या ? जो पुत्र पिता से अनन्य प्रेम करता है, उनकी
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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