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________________ 28 आध्यात्मिक आलोक स्वकृत कर्म भोगता है, परकृत और उभयकृत नहीं । जैसे कहा है-जीवा सयं कडं दुक्खं वेदेति, परकडं दुक्खं वेदेति, तदुभय कडं वा दुक्खं वेदेति ? गोयमा ! जीवा सयं कडं दुक्खं वेदेति, नो पर कडं, नो तदुभय कडं। भ. I इसमें कोई शक नहीं कि जीव अपने ही किए हए कर्म भोगता है। ठीक ही कहा है - 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।' कई बार देखा जाता है कि भले आदमी को बिना कारण के भी सहसा दुःख का सामना करना पड़ता है और अनचाहे भी कर्म फल भोगने पड़ते हैं । उदाहरण के रूप में देखिये - संसार में तीन प्राणी सीधे-सादे जीवन व्यतीत करने वाले हैं, मृग, मीन और संत । फिर भी मनुष्य इन्हें सताते हैं । इन तीनों का जीवन संतोष का होता है । मृग घास-पात खाने वाला और बिलकुल भोला-भाला प्राणी है। वह अपनी चंचल गति की चौकड़ी और बड़ी-बड़ी आँखों से देखने वालों का मन मोह लेता है । मगर ऐसे निर्दोष और सीधे जानवर के लिए भी मनुष्य वैरी बन जाता है। मछली भी उपकारी प्राणी है। वह बिना कुछ दिए लिए केवल जल पर निर्वाह करती है, तथा जल को शुद्ध करती है । मनुष्य के द्वारा की हुई गंदगी की वह सफाई करती है, किन्तु मनुष्य उसकी स्वतन्त्रता को ही नष्ट नहीं करता वरन् उसकी जान भी ले लेता है । संतजन संतोष पूर्वक सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते हैं, किन्तु बिना कारण के संत के भी लोग दुश्मन बन जाते हैं। इस प्रकार दुष्ट का साधुओं को सताना, शिकारी का मृग मारना और मछुए का मछली पकड़ना आदि निष्कारण शत्रुता के उदाहरण हैं। मच्छी आदि के दुःख में कर्म फल को अन्तरकारण मानते हुए भी इस.सत्य को नहीं भूलना चाहिए कि अज्ञान या मोहवश जो किसी को सताते हैं, वे भविष्य के लिए स्वयं वध्य बनकर अपने को भयंकर यातना के लिये तैयार करते हैं। अतएव मानव के लिए संतों का उपदेश है कि अपना भाग्य कुकर्म की मसि से मत लिखो। बुरे कर्म से तुम्हारा उभय लोक बिगड़ता है और जीवन भारी बनता है । भूमि में धान का दाना भले न उगे, पर करनी का दाना बिना उगे नहीं रहेगा । कहावत भी है - "जैसी करनी, वैसी भरनी" कोई बुरा कर्म करके अच्छा फल पाने की इच्छा करे, यह कदापि संभव नहीं है । कहा भी है करे बुराई सुख चहे, कैसे पावे कोय । रोपे पेड़ बबूल का, आम कहां से होय ।। बुरे कर्मों का ही परिणाम दरिद्रता है । पाप और दुःख की परंपरा कैसे बढ़ती है, अनुभवी आचार्यों ने इसका ठीक ही चित्र खींचा है । जैसे कि -
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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