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________________ [१] कर्मादान-विविध रूप सव्वे जीवा विं इच्छति जीविउं न मरिज्जिउं । जैसे आपको अपना जीवन प्रिय और मरण अप्रियं है, उसी प्रकार संसार के सब प्राणियों को जीवन प्रिय और मरण अप्रिय है। मरना कौन चाहता है ? किन्तु बहिर्दृष्टि लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर इस अनुभव सिद्ध सत्य को भी विस्मृत कर देते हैं और जो अपने लिए चाहते हैं, वह अन्य प्राणियों के लिए नहीं चाहते । वे अपने स्वल्प सुख के लिए दूसरों को दुःख के दावानल में झोंक देने में संकोच नहीं करते । इस विषम दृष्टि के कारण ही मनुष्य की सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से घोर हानि हो रही है | आज विश्व में जो भीषण संघर्ष चल रहे हैं, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ टकरा रहा है, एक वर्ग दूसरे वर्ग को अपना शत्रु समझ कर व्यवहार कर रहा है, और एक-दूसरे को निगल जाने की चेष्टा कर रहा है, वह सब इसी विषम दृष्टि का परिणाम है। जब तक यह विषमभाव दूर न हो जाय और प्राणि मात्र के प्रति समभाव जागृत न हो जाय तब तक संसार का कोई भी वाद, चाहे वह समाजवाद हो, साम्यवाद हो, पूंजीवाद हो या सर्वोदयवाद हो, जगत् का त्राण नहीं कर सकता शान्ति की प्रतिष्ठा नहीं कर सकता । ___ अब तक संसार में शान्ति स्थापना के अनेकानेक प्रयास हुए हैं, अनेक वाद प्रचलित हुए हैं, मगर उनसे समस्या सुलझी नहीं, उलझी भले हो । समस्या का स्थायी समाधान भारतीय धर्मों में मिलता है और जैनधर्म उनमें प्रमुख है जो इस समस्या पर . सांगोपांग विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । राजनीतिक वाद आजमाए जा चुके हैं और असफल सिद्ध हुए हैं । हम विश्व के सूत्रधारों को आह्वान करना चाहते हैं कि एक बार धार्मिक आधार पर इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया जाय । .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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