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________________ आध्यात्मिक आलोक 343 सिद्धि प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी घोर असिद्धि का सामना करना पड़ता है । किन्तु धर्मसाधना ( आत्मसाधना ) से प्राप्त होने वाली सिद्धि शाश्वत सिद्धि है । यह सिद्धि आत्मा के अनन्त और अक्षय वैभव-कोष को सदा के लिए उन्मुक्त कर देती है और अव्यावाध सुख की प्राप्ति का कारण होती है । हम अपनी ओर स्वयं दृष्टिपात करें और सोचें कि हमारे जीवन में कौन-सी साधना चल रही है ? हम अर्थ और काम की साधना में व्यन हैं अथवा धर्म की साधना कर रहे हैं ? स्मरण रखना चाहिए कि अर्थ और काम की साधना छूटे बिना धर्मसाधना संभव नहीं है । दोनों परस्पर विरोधी हैं। जहां धर्म साधन की प्रधानता होगी वहां अर्थ और काम की साधना गौण या लंगड़ी हो कर ही रह सकती है । अर्थ-काम साधना का भाव वहां महत्व का नहीं रहेगा, क्योंकि वहां दृष्टिकोण आत्मा की शुद्धि और निज-गुण वृद्धि का रहेगा। जीवन में एक ऐसी स्थिति भी होती है जहां मनुष्य धर्म, अर्थ और काम की साधना करता है । गृहस्थ जीवन में ऐसी स्थिति है। किन्तु विवेकशील गृहस्थ इनका सेवन इस ढंग से करता है कि धर्म, अर्थ और काम में से कोई किसी का विरोधी न बने । इन तीनों के परस्पर अविरोधी सेवन से गृहस्थ जीवन में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती, प्रत्युत वह जीवन अत्यन्त श्रेष्ठ बनता है । सदगृहस्थ अर्थ और काम का सेवन धर्म का घात करके नहीं करेगा और धर्म का सेवन अर्थ और काम का नियामक होगा पर विघातक नहीं होगा | अर्थ और काम का सेवन भी उसका अविरुद्ध होगा । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जब तक गृहस्थ सम्बन्धी उत्तरदायित्व को वहन करके चल रहा है तब तक वह धर्म का बहाना करके अपने सामाजिक या पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख नहीं होगा और श्रावक के योग्य धर्म-साधना का भी परित्याग नहीं करेगा । अर्थोपार्जन करते समय और उसका उपभोग करते समय धर्म का विस्मरण नहीं करेगा। इस प्रकार परस्पर अविरोधी धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते हुए वह अपने गृहस्थ जीवन को आदर्श बनाएगा और जब एकान्त धर्मसाधना का सामर्थ्य अपने में पाएगा तो गाहस्थिक उत्तरदायित्व से अपने को मुक्त कर लेगा। एक आचार्य कहते हैं परस्पराविरोधेन, त्रिवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमदः सौख्यमपवर्गो ह्यनुक्रमात् ।। यदि त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काम का सेवन इस प्रकार किया जाय कि कोई किसी के सेवन में बाधक न हो तो ऐसे मनुष्य लौकिक सुख के साथ त्यागी बनकर अनुक्रम से, मुक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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