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________________ विविध कर्मादान अध्यात्म के क्षेत्र में शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि ही सिद्धि मानी गई है और उस सिद्धि को प्राप्त करना ही प्रत्येक साधक का चरम लक्ष्य है । जल तभी तक ढुलकता, ठोकरें खाता, ऊँचे-नीचे स्थानों में पददलित होता और चट्टानों से टकराता है जब तक महासागर में नहीं मिल जाता । नदी-नाले के जल की यह सब मुसीबतें समुद्र में मिल जाने के पश्चात् समाप्त हो जाती हैं । साधक के विषय में भी यही बात है । उसे भी ऊँची-नीची अनेक भूमिकाओं में से गुजरना पड़ता है, अनेकानेक परीषहों और उपसर्गों की चट्टानों से टकराना पड़ता है और ठोकरें खानी पड़ती हैं । किन्तु जब वह सिद्धि रूपी महासागर में पहुँच जाता है तो उसका भटकना, ठोकरें खाना और टकराना. सदा के लिए समाप्त हो जाता है । उसे शाश्वत और अविचल स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है । समुद्र में प्रवेश करने के पश्चात् भी जल वाष्प बनकर रूपान्तर को प्राप्त करता है किन्तु सिद्धि प्राप्त होने पर साधक को किसी रूपान्तर-पर्यायान्तर को प्राप्त नहीं करना पड़ता । चरम सिद्धि के अनन्तर न तो किसी प्रकार की असिद्धि की संभावना रहती है और न उससे बढ़कर कोई सिद्धि है जिससे प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक हो । जो साधना करता है और साधना के हेतु ही अपनी समस्त शक्तियां समर्पित कर देता है, उसी को सिद्धि प्राप्त होती है। साधना करने वाला साधक कहलाता है। साधारणतया साधनाएं अनेक प्रकार की होती हैं - अर्थ साधना, कामसाधना, धर्म साधना आदि । अर्थ या काम की साधना का आत्मोत्कर्ष के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वह साधना बाह्य साधना है और यदि उसमें सफलता मिल जाय तो आत्मा का अधःपतन भले हो, उत्थान तो नहीं ही होता । ऐसी साधनाएं इस आत्मा ने अनन्त-अनन्त वार की हैं, मगर उनसे कोई समस्या सुलझी नहीं । इन साधनाओं में
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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