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________________ 330 आध्यात्मिक आलोक __'कर्मादान' जैन परिभाषा के अनुसार योगरूढ़ शब्द है। यहां 'कर्म' शब्द से महाकर्म अर्थ समझना चाहिए, अर्थात् जिस कार्य या व्यापार-धन्धे से घोर कर्मों का बन्ध हो, जो कार्य महारंभ रूप हों, महारम्भ के जनक हों, वेही कर्मादान कहलाते हैं। कर्म दो प्रकार के होते हैं-१) खर कर्म और (२) मृदु कर्म । जिस कर्म में हिंसा बढ़ न जाय, यह विचार रहता है, वह मृदु (सौम्य) कर्म कहलाता है और जहां यह विचार न हो वह खर कर्म है । अधवा यों कहा जा सकता है कि जो कर्म आत्मा के लिए और अन्य जीवों के लिए कठोर बनें, वे खर कर्म हैं । खर कर्म दुर्गति की ओर ले जाते हैं । जीवों के विनाश की अधिकता वाले कार्य करने से हृदय कठोर बन जाता है और करुणा भाव विलुप्त हो जाता है । इसी कारण ऐसे कार्यों को कर्मादान कहा गया है । __ कर्मादान पन्द्रह हैं जिनमें से दस कर्म से सम्बन्ध रखते हैं और पाँच व्यापार-धन्धे से सम्बन्ध रखते हैं। आशय यह है कि कर्मादानों में दो प्रकार के कार्यों को ग्रहण किया गया है - वाणिज्य को और कर्म को । जिस चीज को आप स्वयं बनाते नहीं किन्तु उसका क्रय-विक्रय करके लाभ कमाते हैं, वह वाणिज्य कहलाता है । एक बुनकर स्वयं कपड़ा बनाता और बेचता है, वह कर्म कहलाता है। भोगोपभोग परिमाण व्रत में इन्हीं दोनों के सम्बन्ध में मर्यादा की जाती है। जब कोई गृहस्थ इस व्रत को धारण करे तो उसे प्रलोभन से ऊपर उठना चाहिए और देश-काल सम्बन्धी वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए। उसके अन्तःकरण में संयम के प्रति गहरी लगन होनी चाहिए और उसके फलस्वरूप जीवन में सादगी आ जानी चाहिए । वह अपनी आवश्यकताओं को नियन्त्रण में रखेगा और तृष्णा के वशीभूत नहीं होगा तभी इस व्रत का समीचीन रूप से पालन कर सकेगा। अनगार धर्म साधना का रूप निराला है । उसमें पूर्ण रूप से वाणिज्य एवं कर्म का त्याग तो होता ही है, सभी प्रकार के आरंभमय कार्यों का भी त्याग होता है । अनगार का जीवन ऐसी मर्यादा से बंधा है कि प्रलोभनों को वहां जगह ही नहीं है । जरा-सी असावधानी में वह वर्षों की कठिन साधना को गंवा देता है । सांसारिक हानि-लाभ के विषय में साधारण मनुष्य भी सावधान रहता है तो आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में तो और भी अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है । जो सचेत रहेगा वह आत्मिक धन को नहीं खोएगा । उसे मानसिक सन्तुलन रखने की अनिवार्य आवश्यकता है। अनादिकालीन कुसंस्कारों के कारण मन में विविध प्रकार के आवेगों की उर्मियां उत्पन्न होती हैं । अगर मनुष्य उनके वेग में बह जाता है तो उसका कहीं
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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