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________________ 322 आध्यात्मिक आलोक कोई चीज शुद्ध मिल सकती है, अन्यथा किसी में कुछ और किसी में कुछ मिलाया जा रहा है और लोग विवश होकर ऐसे पदार्थों को खरीदते हैं । दूध और आटे जैसी वस्तुओं का, जो शरीर एवं जीवन के लिए उपयोगी मानी गई हैं, शुद्ध रूप में प्राप्त होना कितना कठिन हो गया है, इस बात को आप भली-भांति जानते हैं। केमिकल के नाम पर क्या-क्या मिलाया जाता है, इसका क्या पता है ? पैक की हुई वस्तुओं पर भी आज भरोसा नहीं रह गया है। अभी यह स्थिति है तो आगे आने वाले समय में क्या स्थिति होगी, कहा नहीं जा सकता । इन बातों का उल्लेख किया जा रहा है कि धर्म का आधार नैतिकता नहीं वहां धर्म ठहर नहीं सकता । अतएव धर्म की प्रतिष्ठा के लिए जीवन में नैतिकता आना आवश्यक है । आज नैतिकता के यस के कारण लोगों के हृदय में से धर्म का भाव भी नष्ट होता जा रहा है । आज भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करके मनुष्य उच्छंखल प्रवृत्ति का परिचय दे रहा है, किन्तु याद रखना चाहिए कि आहार बिगड़ने से विचार विगड़ता है और विचार बिगड़ने से आचार में विकृति आती है । जब आचार विकृत होता है तो जीवन भी विकृत बन जाता है। शास्त्र में कहा है _ 'आहार मिच्छे मियमेसणिज्जा एक शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया-काम, क्रोध, मोह आदि विकारों पर कैसे विजय प्राप्त की जाय ? तो गुरु ने उत्तर दिया - तेरा आहार आवश्यकता के अनुसार और निर्दोष होना चाहिए । इससे मन में सात्विकता आएगी, मन शुद्ध होगा। साधना के मार्ग में सजग रह कर चलने वाला ही अपना जीवन ऊंचा उठा सकता बहुत-से विवेकहीन लोग स्वाद के लोभ में पड़ कर आवश्यकता से अधिक खा जाते हैं । भोजन स्वादिष्ट हुआ तो लूंस-ठूस कर उसे पेट में भरते हैं । यदि अन्न पराया हुआ तब तो पूछना ही क्या है । पेटू लोगों ने कहा है परानं प्राप्य दुर्बद्धे, शरीरे मा दयां कुरु । परानं दुर्लभं लोके, शरीरं हि पुनः पुनः ।। अर्थात् अरे मूर्ख ? पराया अन्न मिले तो शरीर पर दया मत कर । शरीर मिल सकता है, किन्तु पराया अन दुर्लभ है । जहां लोगों की ऐसी दृष्टि हो वहां क्या कहा जाय, वे जीवन के लिए भोजन समझने के बजाय भोजन के लिए जीवन .:जते हैं। किन्तु भगवान महावीर ने साधक को सूचना दी है कि भोजन उतना ही . करना चाहिए जिससे संयम की साधना में बाधा न पहुँचे, आवश्यकता से अधिक
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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