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________________ 306 आध्यात्मिक आलोक पराजित कर रखा है | कैसे मैं मर्द होने का दावा करूं । हारे हए से हारना मर्दानगी नहीं, नपुंसकता है। यह भक्त के निवेदन की एक विशिष्ट शैली है । इसमें प्रथम तो वह अपने विकारों पर विजय प्राप्त करने की उत्सुकता प्रकट करता है, दूसरे अपने असामर्थ्य के प्रति असन्तोष भी व्यक्त करता है । विकारों पर विजय प्राप्त करने की साधना दो प्रकार की है - द्रव्य साधना और भावसाधना । दोनों साधनाएं एक-दूसरी से निरपेक्ष होकर नहीं चल सकती, परस्पर सापेक्ष ही होती हैं । जब अन्तरंग में भावसाधना होती है तो बाह्य चेष्टाओं, क्रियाओं के रूप में वह व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकती । अन्तरतर के भाव बाह्य व्यवहार में झलक ही पड़ते हैं। बल्कि सत्य तो यह है कि मनुष्य की बाहय क्रियाएं उसकी आन्तरिक भावना का प्रायः दृश्यमान रूप है । हृदय में अहिंसा एवं करुणा की वृत्ति बलवती होगी तो जीवन रक्षा रूप बास्य प्रवृत्ति स्वतः होगी । ऐसा मनुष्य किसी प्राणी को कष्ट नहीं देगा और किसी को कष्ट में देखेगा तो उसे कष्ट मुक्त करने का प्रयत्न करेगा । इस प्रकार बाह्य क्रियाकाण्ड तभी सजीव होता है. जब उसके साथ आन्तरिक भावना का सम्मिश्रण हो । अगर वह न हुई तो क्रियाकाण्ड मात्र दिखावा होकर रह जाता है । वह 'स्व-पर' वंचना का साधन भी बन सकता है । अतएव साधना के जो दो भेद कहे गए हैं, वे केवल उसके दो रूप हैं, स्वतन्त्र दो पक्ष नहीं हैं। - अपरिचित पथ पर चलने वाला पथिक पहले चले पथिकों के पदचिन्ह देखकर आगे बढ़ता है ताकि वह भटक न जाय । साधना मार्ग के बटोही को भी ऐसा ही करना चाहिए । पूर्वकालीन साधना के मार्ग पर चले हुए महापुरुषों के अनुभवों का लाभ हमें उठाना चाहिए, वीतरागों का स्मरण हमें प्रेरणा देता है, स्फूर्ति देता है, आत्मविश्वास जगाता है, और सही मार्ग से इधर-उधर भटकने से बचाता है । आदर्श महापुरुषों की शिक्षाओं से हमारे जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान होता है, उलझनें सुलझ जाती हैं | आचार मार्ग में भी महापुरुषों के वचनों से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं । भूधरजी महाराज ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे । भूधर जी महराज विजयादशमी को ही इस धरती पर अवतरित हुए और विजयादशमी के दिन ही स्वर्गवासी हुए । यह एक विस्मयकारक घटना है, परन्तु महापुरुषों के जीवन के वास्तविक रहस्य को समझना बहुत कठिन है। . .मारवाड़ के प्रसिद्ध नगर सोजत में धन्नाजी महाराज का उपदेश सुनकर उनके चित्त में विराग उत्पन्न हुआ और वे उन्हीं के पास दीक्षित हो गए।. दीक्षित होने के पश्चात्' उन्होंने संयम और तप का मार्ग ग्रहण किया । अपने अन्दर साधना की
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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