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________________ आध्यात्मिक आलोक 295 पाल वाले, सिंह की गुफा वाले और नाग की बामी वाले, तीनों मुनियों को उनकी सफल साधना के लिए गुरुजी धन्यवाद देते हैं। तीनों मुनि गुरुचरणों में प्रणत हो अपना-अपना वृत्तान्त निवेदन करने के लिए उत्सुक हैं । तीनों को अपनी साधना से सन्तोष है । हम अपनी साधना से गुरु संभूति विजय को प्रसन्न कर सकेंगे, उनके मन में ऐसा विश्वास था । गुरुजी अपने शिष्यों की प्रतीक्षा उसी प्रकार कर रहे थे जैसे पिता विदेश से विद्याध्ययन करके आने वाले पुत्र की करता है । गच्छ के अन्य मुनि भी उनकी तपस्या का वृत्तान्त सुनने के लिए आतुर हो रहे थे, जैसे किसी की लम्बी यात्रा का विवरण सुनने के लिए उसके स्वजन-परिजन आतुर रहते हैं। उक्त तीनों मुनि जो पहले आ पहुँचे थे । उन्होंने अपना वृत्तान्त कह सुनाया और अन्त में कहा-“साधना थी तो बड़ी कठोर, परन्तु आपके अनुग्रह से वह निभ गई। यह आपकी कृपा का ही फल है । आपकी आज्ञा का सहारा लेकर ही हम सफल हो सके।" महामुनि ने उन्हें धन्य कहा और उनके दुष्कर कार्य के लिए उनकी सराहना की। गुरु से प्रशंसा प्राप्त करके तीनों मुनि गद्गद् हो गए और अपने जीवन को कृतार्थ समझने लगे। बीसों कोस से आया अश्व जैसे स्वामी की प्यार भरी थपकियों से सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही ये तीनों मुनि भी सन्तुष्ट हुए । कुछ समय पश्चात् स्यूलभद्र भी गुरु के श्रीचरणों में उपस्थित हुए । यथायोग्य प्रणति के पश्चात उन्होंने भी अपना वृत्तान्त निवेदन किया । कहा - "गुरुदेव ! आपके श्रीचरणों की कृपा और महिमा से मैंने रूपकोषा को श्राविका बना दिया है। अब वह वेश्या नहीं रही । उसके जीवन का कल्मष धुल गया है, वह अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हुई है, उसके जीवन में महान परिवर्तन आ गया गुरु ने यह सब सुनकर कहा - "धन्य, धन्य, धन्य!" इस प्रकार तीन बार धन्य कह कर स्थूलभद्र की साधना की महान प्रशंसा की । फिर बोले - "तुमने दुष्कर ही नहीं, अति दुष्कर कार्य किया है।" गुरु के लिए सभी शिष्य समान थे । उनके चित्त में किसी के प्रति न्यून या अधिक सदभाव नहीं था । फिर भी साधना की गुरुता को ध्यान में रखकर उन्होंने शिष्यों को धन्यवाद दिया । संभूति विजय बड़े प्रसन्न हुए और अपने शिष्यों की साधना के लिए गौरव अनुभव करने लगे । ऐसे आदर्श साधकों के वृत्तान्त से हमें अपना लौकिक और पारलौकिक कल्याण साधन करना चाहिए।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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