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________________ 277 आध्यात्मिक आलोक परिग्रह कारणभूत होगा । इस प्रकार असीमित इच्छा सभी पापों और अनेक अनर्थों का कारण है। जो पदार्थ यथार्थ में आत्मा का नहीं है, आत्मा से भिन्न है, उसे आत्मीय भाव से स्वीकार करना परिग्रह है । परिग्रह के मुख्य भेद दो हैं-आभ्यन्तर और बाह्या रुपया-पैसा, महल मकान आदि बाह्य परिग्रह हैं और क्रोध, मान, माया लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव आभ्यन्तर परिग्रह कहलाते हैं । श्रावक आनन्द ने इच्छा परिमाण व्रत अंगीकार किया और अन्यान्य पापों को भी घटा लिया । इच्छापरिमाण करने से आन्तरिक परिग्रह भी घट जाता है । बाह्य परिग्रह का तो कुछ नाप-तौल भी हो सकता है, जैसे जमीन और धन का प्रमाण किया जा सकता है किन्तु आन्तरिक परिग्रह का, जो बाह्य परिग्रह की अपेक्षा भी आत्मा का अधिक अहित करने वाला है और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाला है, कोई नाप-तोल नहीं हो सकता | उसकी सीमा श्रावक के लिए यही है कि वह प्रत्याख्यान कषाय के रूप में रहेगा । गृहस्थ साधक का कर्तव्य है कि कदाचित् किसी के साथ वैर-विरोध उत्पन्न हो जाय तो उसे चार मास के भीतर-भीतर शमन कर ले । अगर चार मास से अधिक समय तक कोई कषाय विद्यमान रहता है तो वह अप्रत्याख्यान कषाय की कोटि में चला जाता है और अप्रत्याख्यान कषाय के सद्भाव में श्रावक के व्रत (देशविरति ) ठहर नहीं सकते । अतएव जो श्रावक अपने व्रतों की रक्षा करना चाहता है, उसे चार महीने से अधिक काल तक कषाय नहीं रहने देना चाहिए। बाह्य परिग्रह में जमीन, खेत, मकान, चांदी-सोना, गाय, भैस, घोड़ा, मोटर आदि समस्त पदार्थों का परिमाण करना चाहिए । परिमाण कर लेने से तृष्णा कम हो जाती है और व्याकुलता मिट जाती है । जीवन में हल्कापन आ जाता है और एक प्रकार की तप्ति का अनुभव होने लगता है। आखिर शान्ति तो सन्तोष से ही प्राप्त हो सकती है । सन्तोष हृदय में नहीं जागा तो सारे विश्व की भूमि, सम्पत्ति और अन्य सुख-सामग्री के मिल जाने पर भी मनुष्य शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । मन की भूख मिटाने का एकमात्र उपाय सन्तोष है, इच्छा को नियन्त्रित कर लेना है। पेट की भूख तो पाव दो पाव आटे से मिट जाती है मगर मन की भूख तीन लोक के राज्य से भी नहीं मिटती । कहा भी है - गोधन, गजधन, रत्लधन, कंचन खान सुखान । जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूल समान ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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