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________________ 276 आध्यात्मिक आलोक तो प्राणातिपात और असत्य भी बढ़ेगा । सब अनर्थों का मूल कामना-लालसा है । कामना ही समस्त दुःखों को उत्पन्न करती है । भगवान् ने कहा है- 'कामे कमा ही कमियं खु दुक्खं ।' यह छोटा-सा सूत्र वाक्य दुःख के विनाश का अमोघ उपाय हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है । साधारण मनुष्य कामनापूर्ति में ही संलग्न रहता है और उसी में अपने जीवन को खपा देता है । विविध प्रकार की कामनाएं मानव के मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं और वे उसे नाना प्रकार से नचाती हैं । इस सम्बन्ध में सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि कामना का कहीं ओर-छोर नहीं दिखाई देता । प्रारम्भ में एक कामना उत्पन्न होती है । उसकी पूर्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है । वह पूरी भी नहीं होने पाती कि अन्य अनेक कामनाएं उत्पन्न हो जाती हैं । इस प्रकार ज्यों-ज्यों कामनाओं को पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है त्यों-त्यों उसकी वृद्धि होती जाती है और तृप्ति कहीं हो ही नहीं पाती, आगम में कहा है 'इच्छा हु आगास समा अणं तिया ।' जैसे आकाश का कहीं अन्त नहीं वैसे ही इच्छाओं का भी कहीं अन्त नहीं। जहां एक इच्छा की पूर्ति में से ही सहस्रों नवीन इच्छाओं का जन्म हो जाता हो वहां उनका अन्त किस प्रकार आ सकता है ? अपनी परछाईं को पकड़ने का प्रयास जैसे सफल नहीं हो सकता, उसी प्रकार कामनाओं की मूर्ति करना भी सम्भव नहीं हो सकता । उससे बढ़ कर अभागा और कौन है जो प्राप्त सुख - सामग्री का सन्तोष के साथ उपभोग न करके तृष्णा के वशीभूत होकर हाय-हाय करता रहता है, आकुल-व्याकुल रहता है, धन के पीछे रात-दिन भटकता रहता है, जिसने धन के लिए अपना मूल्यवान मानव-जीवन अर्पित कर दिया वह मनुष्य होकर भी मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है । 4. पारलौकिक श्रेयस् और सुख की बात जाने भी दी जाय और सिर्फ वर्तमान जीवन की सुख-शान्ति की दृष्टि से ही विचार किया जाय तो भी इच्छाओं को नियन्त्रित करना अनिवार्य प्रतीत होगा । जब तक मनुष्य इच्छाओं को सीमित नहीं कर लेता तब तक वह शान्ति नहीं पा सकता और जब तक चित्त में शान्ति नहीं तब तक सुख की संभावना ही कैसे की जा सकती है ? यही कारण है कि इच्छा परिमाण श्रावक के मूलव्रतों में परिगणित किया गया है । इच्छा का परिमाण नहीं किया जाएगा और कामना बढ़ती रहेगी तो प्राणातिपात और झूठ बढ़ेगा। अदत्त ग्रहण में भी प्रवृत्ति होगी । कुशील को बढ़ाने में भी
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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