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________________ आध्यात्मिक आलोक 267 करता है। फिर भी वह अर्थ और काम की प्रवृत्ति से सर्वथा विमुख नहीं हो पाता, यह सत्य है मगर अर्थ एवं काम संबंधी प्रवृत्ति उसके जीवन में आनुषागिक (गौण) ही होती है । पथिक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए अनेक स्टेशनों और पड़ावों से गुजरता है, मार्ग में अनेक दृश्य देखता है । निर्धारित स्थान पर पहुँचने के पूर्व बीच में कितनी ही बातें देखता-सुनता है । इसी प्रकार साधक भी मोक्षमार्ग का पथिक है । वह शब्द-रूप आदि को सुनता-देखता और अनुभव करता है । भूमि, धन आदि से भी उसका काम पड़ता है, परन्तु वह उनमें उलझता नहीं और अपने लक्ष्य-मोक्ष को नहीं भूलता। कितने ही कामुक अनंग क्रीड़ा करके अपनी काम-वासना को तृप्त करते हैं। ऐसे लोग समाज में कदाचार को बढ़ाते हैं, अपना सर्वनाश करते हैं और अपने सम्पर्क में आने वालों को भी अधःपतन की ओर ले जाते हैं। सदगृहस्थ ऐसे कृत्यों से अपने को बचाये रखता है । पूर्व काल में, अनेक दृष्टियों से सामाजिक व्यवस्था बहुत उत्तम थी । लोग ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे । शिक्षा की व्यवस्था ऐसी थी कि उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए अनुकूल वातावरण प्राप्त होता था। जब कारण शुद्ध होता है तो कार्य भी शुद्ध होता है । अगर कारण में हो अशुद्धि हुई तो कार्य स्वतः अशुद्ध हो जाएगा। तारुण्य या प्रौढावस्था में यदि सहशिक्षा हो तो वह ब्रह्मचर्य पालन में बाधक होती है। अच्छे संस्कारों वाले बालक-बालिकाएं भले ही अपने को कायिक सम्बन्ध से बचा लें किन्तु मानसिक अपवित्रता से बचना तो बहुत कठिन है । और जब मन में अपवित्रता उत्पन्न हो जाती है तो कायिक अधःपतन होते क्या देर लगती है ? तरुण अवस्था में अनंगक्रीड़ा को स्थिति उत्पन्न होने का खतरा बना रहता है । अतएव माता-पिता आदि का यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी सन्तति के जीवन व्यवहार पर बारीक नजर रखें और कुसंगति से बचाने का यत्न करें। उनके लिए ऐसे पवित्र वातावरण का निर्माण करें कि वे गन्दे विचारों से बचे रहें और खराब आदतों से परिचित हो न हो पाएं। बालकों को कुसंस्कारों से बचाने और सुसंस्कारी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि बड़े-बूढ़े घर का वातावरण शुद्ध और सात्विक रखने की सावधानी बरतें । जिस घर में धर्म के संस्कार होते हैं, धर्म कृत्य किये जाते हैं, सन्त महात्माओं के जीवन-चरित पढ़े-सुने जाते हैं, सत्साहित्य का पठन-पाठन होता है और धर्मशास्त्रों का स्वाध्याय किया जाता है, जहां हंसी-मजाक में भी गाली-गलौच का या
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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