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________________ 98 . आध्यात्मिक आलोक तप और नियम से नये कर्मों की वृद्धि रुकती है । साधकों को चाहिए कि नियमों के द्वारा स्वयं तथा समाज में कर्म की धूल नहीं आने दें। संघ धर्म के रूप में स्वाध्याय और तप-नियम आदि जुड़ जाएँ तो व्यक्ति-धर्म का पालन आसान हो सकता है। धर्म-विरुद्ध संस्कारों और प्रथाओं को दूर करने के लिए धर्मानुकूल सामाजिक नियम होने चाहिए जैसे-जातीय प्रतिबन्ध होने के कारण जैन जगत् में आतिशबाजी की रोक है, वर्षा ऋतु में शादी नहीं करना भी राजस्थान में समाज धर्म है, क्योंकि इससे अनावश्यक हिंसा बढ़ती है तथा अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां भी आती हैं । इसको संघ-धर्म में सम्मिलित कर देने से व्यक्ति-धर्म का पालन सरल हो गया । यदि व्यक्ति-धर्म और जाति-धर्म में प्रभु-भक्ति एवं स्वाध्याय का भी नियम हो, तो व्यक्ति और जाति दोनों के लिए हितकर हो सकता है । धर्मस्थान इसीलिए बनाए जाते हैं कि उनसे सदा प्रेरणा मिलती रहे और धर्म-विमुख लोगों में भी उनको देखकर कुछ-कुछ धर्मभावना जगती रहे । पाश्चात्य देशों में भी लोग गिरिजाघरों तथा धर्मस्थलों में प्रेरणा ग्रहण करने को जाते हैं और धीरे-धीरे वहां आते-जाते कुछ-न-कुछ प्रेरणा प्राप्त कर लेते हैं। ज्ञान-बल के अभाव में अनेक कुत्सित कर्म किए जाते हैं और मन में सतत कमजोरियां घर करती रहती हैं, क्योंकि ज्ञान नहीं होने से हेयोपादेय का कुछ पता नहीं चलता । यदि सामूहिक स्वाध्याय का रिवाज होगा, तो मन की दुर्बलता दूर भगेगी और करने योग्य शुभ कर्मों में प्रवृत्ति एवं दृढ़ता जोर पकड़ती जाएगी। ____ धार्मिक स्थल, उपाश्रय, स्थानक और मन्दिरों में स्वाध्याय का नन्दिघोष अवश्य होना चाहिए । चातुर्मास में साधु-साध्वी और उनके प्रवचन के अभाव में भी धार्मिक स्थल खाली नहीं रहने चाहिए । साधु-साध्वी आसमान से नहीं टपकते और न जमीन से तथा न साधुओं के यहां ही पैदा होते हैं । फिर, उतनी बड़ी संख्या में साधु-साध्वी कहां से आएंगे, जितने कि समाज को अपेक्षित हैं । अतएव श्रावक संघ को स्वतः स्वाध्याय में बढ़ावा देकर अपने धर्मसोत को प्रवाहित बनाए रखना चाहिए । यदि संघ द्वारा स्वाध्याय को बढ़ावा नहीं मिला तो व्यक्ति का चारित्र-धर्म उत्कर्ष की ओर नहीं बढ़ेगा। वस्तु का स्वभाव नहीं जानने से ही राग-द्वेष की परिणति होती है, जो ज्ञान से दूर होती है । स्वाध्याय के द्वारा आसानी से वस्तुं स्वरूप का परिचय मिल जाता है । अतः जहां साधुओं का गमनागमन नहीं हो, वहां पर भी संघ में, साधु का अभाव न अखरे ऐसे उपदेशक उत्पन्न करना चाहिए । संघ-सेवा अपनी और दूसरे की उभय सेवा है । तपत्रत आदि साधना व्यक्ति-धर्म है, जो साधारण जन भी कर ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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