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________________ दूसरे घने सम्बन्धी उसकी मदद करने के लिए दौड़ते हैं, फिर भी यदि उसका कष्ट न मिटे तो वह असहाय अनुभव करता है। इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्तियों का सहारा उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है किन्तु यदि सभी प्रकार के उपचार से उसका शारीरिक दुख न मिटे तो उसका भोग व्यक्ति को स्वयं को ही करना पड़ता है। इस तरह से वह अनाथ की कोटि में आ जाता है (104 से 125) । श्रना. थता की यह वास्तविक अनुभूति उसको अनासक्ति का पाठ पढ़ा सकती है। वे लोग जो शारीरिक कष्ट की इस अनभूति के प्रति सवेदनशील हो जाते हैं, वे संयम ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त कर लेते हैं। उत्तराध्ययन का कहना है कि मनुष्य जीवन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। वह यदि प्राप्त भी हो भी जाये तो सही मार्ग का मिलना दुलंभ रहता है। सयम के महत्व का श्रवण, उसमें श्रद्धा तपा सयम में सामर्थ्य ये तीनो भी कठिन ही रहते है (11 से 16) । इसलिए उत्तरााध्ययन का कथन है कि जिसने मनुप्यत्व को प्राप्त किया है तथा जो संयम रूपी धर्म को सुनकर उममें श्रद्धा करता है, वह संयम में सामर्थ्य प्राप्त करके मानसिक तनाव से मुक्त हो जाता है (17) । इस तरह से जब मनुष्य को इन्द्रिय-भोगों की निस्सारता का भान होने लगता है, तो वह संयम मार्ग की भोर चल पड़ता है। मृत्यु की अनिवार्यता, भोगों की नश्वरता, मानवीय सम्बन्धों की सीमा शारीरिक कष्ट की अनुभूति, मनुष्य जीवन की प्राप्ति और उसमें सही मार्ग मिलने की दुर्लभता-ये सब मनुष्य को संयम के लिए प्रेरणा देकर उसे तनावात्मक दुःख से मुक्त कर सकते हैं । xx ] [ उत्तराध्ययन
SR No.010708
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size3 MB
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