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________________ [ १७ ] यक्षिणी ने कहा यह राम की नगरी है राम लक्षाण यहाँ आनन्दपूर्वक रहते हैं और दीन हीन को प्रचुर दान देते हैं, स्वधर्मी भाई की तो विशेष प्रकार से भक्ति की जाती है। ब्राह्मण ने कहा-मैं राम का 'दर्शन कैसे करूं, यक्षिणी ने कहा-रात में इस नगरी में कोई प्रवेश नहीं करता, तुम पूर्वी दरवाजे के बाहर वाले जिनालय में जाकर भक्ति करो व मिथ्यात्व त्याग कर साधुओं से धर्म श्रवण करो जिससे तुम्हारा कल्याण होगा। ब्राह्मण यक्षिणी की शिक्षानुसार धर्माराधन करता हुआ पक्का श्रावक हो गया। सरल स्वभावी भली ब्राह्मणी भी प्रतिवोध पाकर श्राविका हो गई। एक दिन कपिल अपनी स्त्री के साथ राजभुवन की ओर आया और लक्ष्मण को देखकर वापस पलायन करने लगा तो लक्ष्मण के बुलाने से आकर नमस्कार पूर्वक कहने लगा-मे वहीं पापी हूँ जिसने आपको कर्कशता पूर्वक घर से ' बाहर निकाल दिया था। आप मेरा अपराध क्षमा करें। राम ने - मिष्ट वचनों से कहा-तुम्हारा कोई दोष नहीं, उस अज्ञानता का ही दोष है, अब तो तुमने जिनधर्म स्वीकारकर लिया अतः हमारे स्वधर्मी बन्धु हो गए। तदन्तर उसे भोजन कराके प्रचुर द्रव्य देकर बिदा किया। कालान्तर में कपिल ने संयम मार्ग स्वीकार कर लिया। वर्षाकाल बीतने पर जब राम अटवी की ओर जाने लगे तो यक्ष ने राम को स्वयंप्रभ हार, लक्ष्मण को कुण्डल व सीता को चड़ामणि हार भेंट किया एवं एक वीणा प्रदान कर अविनयादि के लिए क्षमा याचना की। राम के विदा होते ही नगरी इन्द्रजाल की भांति लुप्त हो गई।
SR No.010706
Book TitleSitaram Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1952
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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