SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५ ) एह नहिं साध म जाणिज्यो, ए पाखडी कपटी रे । नगर माहि सगले ठामे ए पाप नी त प्रगटी रे ॥७॥ सा०॥ लोक कहइ विरता थकां, करम तरपी वात देखउ रे । करम विटंबइ, जीव नइ, करम तणउ नहि लेखउ रे ।।८।। सा०॥ विषयारस लुवधइ थकइ, साध अकारज कीघउ रे । साध नइ भु डउ भवाडियउ, कलक कूडउ सिरि. दीधउ रे ॥सा० एह उड्डाह सुरगी करी, साधु घणउ विलखाणउ रे । अनरथ मुझ थी ऊपनउ, जिन शासन हीलारणउ रे ॥१०॥ सा०॥ . एह कलंक जउ ऊतरइ, तउ अन्नपारणी लेउं रे । नहि तरि तउं आपणा कीया, वेदनी करम हु बेउ रे ॥११॥ सा०।। आवी सासन देवता, साध नइ सानिधि कीधी रे। वेगवती नइ वेदना, अति घणु सबली दीधी रे ॥१२॥ सा०।। तुब थय उ मुख सूजि नइ, पाप ना फल परतक्षो रे । करिवा लागी एहवा, वलि पछतावा लक्षो रे ॥१३।। सा०॥ हाहा ! मइ महा पापिणी, कां दीयउ कूडउ आलो रे। साध समीपि जाइ करो, मेल्या बालगोपालो रे ।।१४।। सा०।। भो भो ! लोक सको सुणउ, मइ दीधउ पाल कूडउ रे । परतखि मइ फल पामीया, परिण साधजी ए रूडउ रे ।।१। सा०॥ ए मानभाव मोटउ जती, एह नइ पूजउ अर्चउ रे । जिमि ससार सागर तरउ, मन कोउ इण थी विरचउ रे ॥१६।। सा०॥
SR No.010706
Book TitleSitaram Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1952
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy