SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म वावनी १३ - सवैया इकतीसा मैरो वैन मान यार, कहत हुँ बारबार, हित की ही बात चेत काहे न गहातु है। नीकै दिल दान देहु, लोकनि मैं सोभलेह, सुबकी विसात भैया मोहि ना सुहात है। खाना सुलतान राउ राना भी कहाना सब, - वातनि की बात जगि कोऊ न रहात है। ऐसौं कहै धर्मसीह, धर्म की ही गहौ लीह, काया माया वादर की छाया सी कहात है ॥४६।। सवैया तेवीसा यह खेह के खंभ सी देह असार, विसार नहीं खिनका-खिनका । जवही कछु दक्षिण वाउ वग्यौ, तब ही हुइगी कनका कनका। कबहु तुम यार करौ उपकार, कहै धर्मसी दिन का दिन का। कर के मणिके तजि के कछु ही अव, फेरहु रे मनका मनका ॥४७॥ रन्न मे रूदन्न जैसैं, अंधक कुदरपन्न जैसैं, थल भूमि में मृनाल काहू चौयौ है। जैसे मुरदा की देह, भूपन कीए अछेह, । जैसैं कौआ को शरीर, गंगनीर धोयौ है। जैसे बहिरा के कान, कोरि कीए गीत गान, जैसै कूकरा कै काजु खीर घीउ ढोयो है।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy