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________________ ( ३४ ) आपकी विद्वता की धवलकीर्ति कपूर के सुवास की भाति शीघ्र ही चारों ओर फैल गई। फलतः गच्छनायक जिनचन्द्रसूरिजी ने सं० १७४० में इन्हें उपाध्याय पद से अलंकृत किया और अपने पास में ही इन्हें रखा। जिनचन्द्रमूरिजी के स्वर्गवास के बाद जिनसुखसूरि गच्छनायक हुए उन्हे आपने विद्याध्ययन भी करवाया था और उनके साथ ही जब तक वे विद्यमान रहे, आप विहार करते रहे। सं० १७७९ में जिनसुखसूरिजी का स्वर्गवास रिणी में हुआ, उनके पट्टधर जिनभक्तिसरि हुए। उन्हें भी विद्याध्ययन आपने करवाया था। उस समय जिनभक्तिसूरिजी केवल १० वर्ष के ही थे इसलिए गच्छ व्यवस्था भी विशेषतः आपकी देख रेख मे, होती रही। राज्य सम्मान जैन आचार्यों और विद्वान् मुनियों का तत्कालीन राजाओं, मंत्रियों आदि पर विशेष प्रभाव रहा है। बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह, सुजानसिंह, जैसलमेर के रावल अमरसिंह, जोधपुरनरेश जसवतसिंह, सुप्रसिद्ध दुर्गादास राठोड़ और वीर शिवाजी संबंधी आपके पद्य भी मिले हैं। बीकानेर के महाराजा सुजानसिंहजी ने संवत् १७७५ के माघ सुदी मे खरतर गच्छ के आचार्य जिनसुखसूरिजी को पत्र दिया था जो हमारे संग्रह में है. उसमे धर्मसिंहजी की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार लिखा है :
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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