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________________ दशार्णभद्र राजपि चौपई ३३१ खाचाताण मिली ए खरची, काम सरै नहिं कोई , भमतो तिहा थी वलि भोगवतो, सुख दुख लीया सोई; ५ मा० इक दिन इक अटवी मे ऊभो, छबि सखरी तरु छाया , वाडी चढि राय दशारण, उणहिज वडि तलि आया , ६ मा० पूछयो भूपे कुण परदेशी, इण ठामे क्यु आयो , तिण अपणा घर देव त्रियानो, सहु विरतंत सुणायो, ७ मदहर सुत हुं छु मणिहारो, धन में कारण धाउं , अरथ खाट ने पूजी अरची, माहरा देव मनावु , ८ पूजिस हु शिव ने पारवती, सो दिन सफलो थासी , माया भावे तितरी मेलो, आखर साथ न आसी, ६ सहसवुद्धी नृप सुणि समझावै, परमारथ सहु पायो; सरल चित्त दीसे तुसखरो, पिण वाहर वहकायो , १० घर मे केई घाल्या घरणी, नाठा ते नर नारि , शिव पारवती घर थी सिलक्या, कामण दीधी गारी , ११ परहो तुझ काढ्यो परदेशे, कुलटा इतरो कीधो , समझावी इम राय दशारण, डेरो पुर मे दीधो , १२ सखरे महिले राख्यो सुखियौ, सखरी भगति सजाई , स्वारथ विण जे करणी सेवा, भल्ला तणीय भलाई , १३ दिल में चिते राय दशारण, अहो एहनी अधिकाई , अछता देव तिहा ही ऊपर, साची भगति सदाई , १४ । मो सरिखौ नाहिं कोई मूरख, मोहे रहियौ माची, साचा देव तिथंकर सरिखा, सेवा न करू साची , १५
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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