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________________ ( २४ ) आपदा साथि आगे लगी, जायै निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कही नाठो छुटै कठे ॥१३॥ (छप्पय वावनी) खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणः सन्तापिते मस्तके, गच्छन् देशमनातपं द्र तगतिस्तालस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र देवहतकस्तत्रैव यान्त्यापदः ।। (नीतिशतकम्-६६) पंकज मामि दुरेफ रहै, जु गहै मकरंद चितं चित ऐसौ। जाइ राति जु है है परमात, भय रवि दोत हसै कंज जैसो। , जाउंगो मैं तव ही गज नै जु, मृनाल मरोरि लयौ मुहि तैसो । युं धर्मसीह रहै जोउ लोभित, ह तिन की परि ताहिं अंदेसो। (धर्म वावनी-४२) रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिप्यति पङ्कजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा मूलतः कमलिनी गज उज्जहार ।। इस प्रकार महोपाध्याय धर्मवर्द्धन के काव्य की विविधता पर विचार करने से वे एक समर्थ एवं सरस कवि के रूप मे मूर्तिमान होते हैं। उनकी रचनाए उनके जीवन के अनुरूप है और साथ ही रोचक तथा शिक्षाप्रद भी कम नहीं
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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