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________________ गुरु गीतादि संग्रह प्रकृति जुदी पुण्य पाप नी, बेतालीस वयासी रे। सुगुरू कहै समझाय नै, भगवते जे भासी रे ।। सरस० ॥३॥ दस दृष्टान्ते दोहिलो, श्रावक नौ कुल सारू रे। संगति वलि सदगुरू तणी, पामी पुण्य प्रकारू रे ।। सरसना४॥ धरम नरम मन जे धरै, भरम करम' ना भाजै रे। चरम जिणंद कहैं ते चढ़े, परम मुगति गढ पाजै रे।।सरसा । वाणि विविध विचार सु, प्राणी ने परकास. रे। जाणी नैं करिस्य जिकै, वरस्यै मुगति विलास रे ।। सरस०॥६।। इण भवि सुख अधिका लहै, विजयहरप जसवासो रे। धरम करौ धर्मसी कहै, इण उपदेश उलासो रे ॥ सरस०॥७॥ (१२) छप्पय—क का बारहखडी पर करण अधिक कल्याण, काज साधन शुभ कामित । किलक भाल किरणाल, कीध जिण निर्मल कीरत ।। कुल दीपक वलि कुशल, क्रूर नहिं मन छग कूरम । केवल धर्म केलवण, कैहणिया कैतल भ्रम ।। कोश गुण रतन को इण समौ, कौटिक गण कौमुदीयवर । कज सम मुख कंठ कोकिला, काहु जिनसुख जन सुखकार ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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