SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु गीतादि संग्रह २४७ - - - दुर पद दिद्ध द्धरि हथ सिद्ध, द्धी गुण गृद्ध द्धरि ततछद्ध धाम सुलद्ध, दरणी मद्ध द्धाक प्रसिद्ध, धूम सी किद्ध ध्वनि अमृत सुविशेष ॥ १ ॥ खरतर० (५) जिनसुखसूरि चद्रावला सहु धरमा सिर सैहरौ रे, श्री जिन धरम सुजाण, खरतर गच्छ सोभा खरी रे, भट्टारकीया कुलभाण । कुलभाण रे जाँण वारू किरिया धर्म वखाण, पूज विराजइ पुण्य प्रमाण, जिनसुखसूरि अखडित आण ॥१॥ श्री गच्छनायकजी रे, प्रतपौ बहु जुग पाट, खाटउ जस खरौजी, वरतौ सुधरम वाट । दाटौ दुख परौजी २ __ साहलेचा बहुरा सही रे, पुहवी गोत्र प्रसिद्ध । रतनादे रुपचद नउ रे, सुत ए गुणे समृद्धरे। सुत ए गुणे समृद्ध सार, आणी मन वइराग अपार संयम जिण लीधौ सुखकार, अधिक भाव भलइ आचार ॥ ३॥ श्रीजिणचंदसूरिंद जी रे, सैं हथ दीधौ पाट । महोछव सूरत मंडिया रे, गीता रा गहगाट । गीता रा गहगाट रे खास, दीपइ पारिख सामीदास । पढठवणो कीधी परकास, विलस्या वित्त लीधौ जसवास [४] महिमा मोटी महियले रे, हुआ हरष उच्छाह । वचन कला वखाण नी रे, वाखाण सहु वाह वाह ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy