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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सुकवि गच्छराज नैं निरखि उपम सजे,
। तरणि जिम ताहरौ वखत तोलें ॥२॥ धर्म शोभा सकल तेज वरते धरा,
हारि नाठी तमस हेक हिलकै । सूरि जिणचंद संपेखि सगला कहै,
किरणधर जेम तुझ भाग किलकै ॥३॥ प्रगट परताप जिनरतन रो पाटवी,
सकल सुख देण कवि कहै धर्मसीह । भालियल तेज किरणांल जिम भालता,
दलिद मेट करै दौलति दीह ।।४।।
__ नं०-३ दे देंकार करणे धर्म दाखै,
अधिको आणिंद र्दै अधिकार ।। नाम न ल्यै जिणचद् न ना रो,
नाठो तिण रूसे नाकार ॥२॥ सुवे सात प्रियां रे साह्यो,
गिणि पूरवलौ वस गिनौ । पूज त, पिण धरता पगला,
न सकै रहि तिण ठाम न नौ ॥२॥ राजै नगर जिणे गच्छराजा,
दे देकार घणा तिण देस ।