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________________ ( १८ ) ७ शिक्षाकथन सुगुरु कहै सुण प्राणिया, धरिज धर्म वट्टा। पूरव पुण्य प्रमाण तें, मानव भव खट्टा। हिव अहिली हारे मता, भाजे भव भट्टा । लालच मे लागै रखें, करि कूड़ कपट्टा ॥२॥ उलम नौ तु आप सु, ज्यु जोगी जट्टा । पाचिस पाप संताप में, ज्युभोभरि भट्टा। भमसी तु भव नवा नवा, नाचै ड्युनट्टा । ऐ मंदिर ऐ मालिया, ऐ ऊचा अट्टा ॥३॥ हयवर गयवर हींसता, गौ महिपी थट्टा। लाल दु लीपी झूवका, पल्लिंग सु घट्टा । मांनिक मोति मूदड़ा, परवाल प्रगट्टा । आइ मिल्या है एकठ्ठा, जैसा चलवट्टा ॥४॥ (गुरु शिक्षा कथन निसाणी) ऊपर के उदाहरणों से प्रकट होता है कि समर्थ-कवि धर्मवर्द्धन ने राजस्थान में प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों को अपनाया है और इस प्रकार की अपनी रचनाओं में वे पूरे सफल हुए हैं। राजस्थानी साहित्य मे काव्यगत नामों के अनेक प्रकार हैं और उन सब में रचना,शैली की दृष्टि से अपनी अपनी विशेषताएं हैं। मुनि धर्मवर्द्धन ने उन सब को अपनी वाणी का सुफल भेंट किया है। उपर के उदाहरणों के अतिरिक्त अन्य काव्यशलियों से सम्बधित कवि की 'नेमि
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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