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________________ १८० धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली तासु दुरगति न है नरक त्रियच री. सुगति सुर नर लहे सुगति सारी। विमल आतम तिको विमलगिरि निरखसी, धनो धन श्री धर्मसील धारी ॥ ४ ॥ सिद्धाचल महिमा वर्णन रतन मे जैसे हीर नीरनि में गंगा नीर, फूलनि की जाति मे अमूल फूल केतकी। सब ही उद्योत मे उद्योत ज्यु प्रद्योतन को,, ज्योति मे सुज्योति ज्यु मुदै है ज्योति नेतकी ॥५॥ सब ही सुशीख मे सुधर्म सीख हेत की है, तेजनि तूरिने टेक राखी जेसे रेतकी। योजन पैताल लक्ष सिद्धनिके खेत है प, सेजेजे विशेष रेख राखी सिद्धखेत की ||५| विमलगिरि स्तवन राग-मल्हार विमलगिरि क्यु न भये हम मोर । सिद्धवड रायण रुख की शाखा, झलत करत झकोर वि०१ आवत सव रचावत अरचा, गावत धुनि घन घोर । हम भी छत्र कला करि हरखत, कटते कर्म कठोर विका मूरति देख सदा उल्हसै मन, जैसे चद चकोर । श्री रिषहेसर में श्रीधर्मसी, करत अरज कर जोर । वि०।३
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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